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( ११२) वात, कहे मुनि जिनवरना अवदात ॥ संसार काम करे मन धरे, खांम खेली नली बेहु परें ॥७॥ जे श्रावक दाता धनवंत, एक सेवक राखे गुणवंत ॥ सकल शास्त्रनी वातो करे, विण कीधे सुणतां शुज वरे ॥॥ तेणें श्रावक सेवक ते सार, श्रावक शेठ जलोज अपार ॥ पाडोशी श्रावक सारथि, धर्म सु णावे जे नर कथी॥ ए॥ सेवक केरो कह्यो विचार, सांजलतां मति होये सार ॥ वात करे श्राघेरो रहे, शेषन कहे हितने नवि लहे ॥१०॥ सर्व ॥५२॥ ॥ ढाल ॥ राग रामग्री ॥महावनमांहे मृगलो॥
॥ए देशी॥ ॥षन कहे नर सांचलो, एकमित्र कीजें सार॥ विषम कामें काज श्रावे, साह्यनो दातार ॥१॥ तेमाटें एक मित्र करवो, समान जेहनो धर्म ॥धन प्रतिष्ठा जस आप सरिखो, तेहशुं मैत्री परम ॥२॥ गुणबुद्धि जेहनी आप सरिखी, लोनें हीणी जेह ॥ एक मित्र एसो करे जे, सुखी होये तेह ॥३॥ महो टो मित्र जो घरे आवे,करे ते धननी हाणी ॥ आपण ने बहु मान न दीये, मान मनमांहे आणी ॥४॥ प्रीति सहेजें वडा संघातें, होय गुणनुं हेज॥ विषम काम
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