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(१७) क परें रिकि करतां पाप, मरण लही नरकें वहे आप ॥ १४ ॥ पाप पुण्यानुबंधी पण होय, दारि जी नर थाये सोय ॥ जिन मारग पामी होय सुखी, संप्रतिराय जिम कुमकह रिषि ॥१५॥ पापानुबंधी होये पाप, ते दरिडी लहे संताप ॥ पा रातो छ गति वरे, कालग सूरिश्रानी परें फरे ॥ १६ ॥ चार नेदनो नांख्यो मर्म, पामे सुख ते पूरव कर्म ॥न्यायें फुःख ते पूरव पाप, आगल सुख जोगवशे श्राप ॥१७॥ ज्यां न्याय तिहां लखमी जाण, सुपुरुष न करे परनी हाण ॥ ते घर हाट वखार पण त्यजे, जिहां परिताप परने उपजे ॥१॥ परना नीशासा जिहां होय, तिहां लखमी सुख न हुवे दोय ॥ उक्ति सुणो पंमित मुख जणे, वं मैत्री धूरत पणे ॥ १ ॥ सुखें शास्त्रने कपटें धर्म, तेनवि वां समने मर्म ॥ कठण थर स्त्रीने वांबतो, ते दीसे जग फुःखी थतो ॥२०॥ पर संतापें वंडे धन्न, ए पांचे ते मूरख जन्न ॥ लोक जलो कहे ते विधि करे, सत्यपणं नर सही श्रादरे ॥१॥ सत्यवादीने शिक्षा दे एह, धन खोयूं नवि लांखे तेह ॥धन वाध्युं मन जाणी रहे, संग्रही वस्तु न कोने कहे ॥ २२ ॥ स्त्रीनी वा
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