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व्याप्त है। धूम्र रहित अनेक ज्वालायें आपस में स्पर्धा से बढ़ती हुई मानो आकाश को पकाने के लिए प्रयत्न करती हों ऐसी मालूम होती है । १४ । इस प्रकार विकसित कमल के समान नेत्रवाली त्रिशला क्षत्रियाणीने पूर्वोक्त मंगलमय, कल्याणकारी, प्रियदर्शन इन चौदह महास्वमों को आकाश से उतरते और अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा । पूर्वोक्त सुभग सौम्य चतुर्दश स्वमों को देख कर त्रिशला रानी शय्यामें जाग उठी। उस समय हर्ष के कारण उसका सर्वांग उल्लसित हो गया, अरविन्द के समान लोचन विकस्वर हो गये और उसके सर्व शरीर की रोमराजी मारे हर्ष के विकाशमान होगई।
इन चौदह स्वप्नों को सर्व तीर्थंकरों की मातायें जब तीर्थकर का जीव उनके गर्भ में अवतरता है तब अवश्य देखती हैं। इस कारण त्रिशला रानी भी महावीर प्रभु के गर्भ में आने से इन चतुर्दश महास्वप्नों को देख कर शय्या में जागृत होगई। अब हर्ष संतोष युक्त हृदयवाली, मेघधाराओं से सिंचित कदम्ब के पुष्प समान उठे हुए रोमवाली त्रिशला रानी उन स्वमों को क्रम से याद करती है। फिर शय्या से उठ कर पादपीठ से उतर कर मन, वचन, काया सम्बन्धी चापल्य-स्खलनादि रहित, राजहंसी के समान गति से चल कर सेज पर सोए हुए सिद्धार्थ राजा के पास आती है और सिद्धार्थ राजा को वल्लभ, सदैव वांच्छनीय, प्रेमगर्भित, मनोज्ञ, उदार, मनोरम, वर्णस्वर के उच्चारण से प्रगट, कल्याणकारी, समृद्धिकारक, धन लाभ करानेवाली, मंगलकारी, अलंकारादि शोभायुक्त, हृदय को प्रसन्न करनेवाली, भरतार हृदय को आहाददायक, कोमल मधुर
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