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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir किया। इससे कुपित हो उस गाय को दोनों सींग पकड कर आकाश में घुमाई और यह निदान कर लिया कि मेरे इस तप के प्रभाव से मैं भवान्तर में सबसे अधिक बलवान बनूँ । वहाँ से मृत्यु पाकर सत्तरवें भव में महाशुक्र विमान में उत्कृष्ट स्थितिवाला देव हुआ। अठारहवें भव में पोतनपुर के राजा प्रजापति कि जो अपनी पुत्री का ही कामी बना था उसकी पत्नीरूप मृगावती पुत्री की कुक्षि से चौरासी लाख वर्ष की आयुवाला त्रिपृष्ट नामक वासुदेव हुआ। वहाँ बालवय में ही प्रतिवासुदेव के चावलों के खेतोंमें उपद्रव करनेवाले सिंह को शस्त्र छोड़ कर चीर डाला । क्रमसे वासुदेव का पद पाया। एक समय उस वासुदेव ने अपने शय्यापालक को आज्ञा दी कि जब मुझे निद्रा आजावे तब इन गाना गानेवालों को बन्द कर देना । यह आज्ञा होते हुए भी संगीत रस में आसक्त होने से वासुदेव को निद्रा आजाने पर शय्यापालकने गवयों को गाने से न रोका । क्षणान्तर में निद्राभंग होजाने से कुपित हो वासुदेव बोला-अरे दुष्ट ! हमारी आज्ञासे भी तुझे संगीत अधिक प्रिय लगा? ले इसका फल चखाऊँ। यों कह कर उसके दोनों कानों में सीसा गरम कर के डलवा दिया। इस कृत्य से उसने अपने कानों में सलाखायें डलवाने का कर्म उपार्जन कर लिया। इस प्रकार अनेक दुष्ट कर्म कर के वहाँ से मृत्यु पाकर उन्नीसवें भवमें सातवीं नरक में नारक तया उत्पन्न हुआ। वहाँ से निकल कर बीसवें भव में सिंह हुआ। वहाँ से मर कर इक्कीसवें भव में चौथी नरक में नारक हुआ। वहाँ से निकल कर फिर संसार में बहुत से सूक्ष्म भव भ्रमण कर बाईसवें | भव में मनुष्य गति में आकर कुछ शुभ कर्म उपार्जन किया । तेईसवें भव में मूका राजधानी में धनंजय राजा की For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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