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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - भी व्याख्यान. बनुवाद। ॥२३॥ वह न्यायवान होने से किसी समीपवर्ति देवताने उसे उसके स्थान पर रख दिया । अतः हे आनन्द । तेरा धर्माचार्य ऋद्धि प्राप्त होने पर भी संतोष न पाकर ज्यों त्यों बोल कर मुझे कुपित करता है, मैं अपने तप तेज से उसे भस्म कर डालूँगा, इस लिए तूं शिघ्र ही जा कर उसे यह बात कह दे। उस वृद्ध वणिक के समान हितोपदेशक समझ कर मैं तेरी रक्षा करूँगा । यह बात सुन कर आनन्दने सर्व वृत्तान्त प्रभु से आ कहा। भगवान बोले-हे आनन्द ! तूं शीघ्र ही गौतमादि मुनियों से जा कर कह कि-यह गोशाला यहाँ रहा है अतः उसके | साथ किसीको भी संभाषण न करना चाहिये और तुम सब यहाँ से इधर उधर चले जाओ। उसने वैसा ही किया। इतने में गोशाला वहाँ पर पहुँचा और भगवान से बोला कि-हे काश्यप ! तूं ऐसा क्यों बोलता है ? कि यह मंखली का पुत्र गोशाला है। वह तेरा शिष्या मंखलीपुत्र तो मर गया, मैं तो और ही हूँ। उसका शरीर परीषहों को सहन करने में समर्थ समझ कर मैंने उसमें प्रवेश किया हुआ है। इस प्रकार गोशालाद्वारा प्रभु का तिरस्कार न सहते हुए वहाँ पर रहे हुए सुनक्षत्र और सर्वानुभूति नामक दो मुनियों को बीच में उत्तर देते हुए गोशालाने तेजोलेश्या से भस्म कर दिया । वे मर कर स्वर्ग को प्राप्त हो गये। भगवान बोले-हे गोशालक ! तूं वही गोशाला है, अन्य नहीं । किस लिए वृथा ही अपने आपको छिपाता है ? इस प्रकार तूं अपने आपको छिपा नहीं सकता । जिस प्रकार कोई चोर कोतवाल की नजर में आजाने पर भी अपने आपको एक तिनके या अंगुली के पीछे छिपाने का प्रयत्न करे तो क्या वह छिप सकता है ? भगवान के सत्य वचन ॥२३॥ For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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