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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भी कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद | ॥ २१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा व्याख्यान तीन समुद्र और चौथा हिमालय इन चारों के अन्ततक स्वामिभाव से धर्म के श्रेष्ठ चक्रवर्ती, अर्थात् धर्म के स्थापक समुद्र में डूबते हुए प्राणियों को द्वीप के समान आधाररूप । अनर्थ का नाश करनेवाले । कर्मों के उपद्रव से भयमीत प्राणियों को शरणरूप । दुःखित मनुष्यों को आश्रयरूप, संसाररूप कुवे में पड़ते हुए प्राणियों को अवलंबनरूप । अप्रतिहत-जिसको संसार की कोई भी वस्तु रूकावट न कर सके ऐसे अस्खलित उत्तम प्रधान ज्ञान दर्शन को धारण करनेवाले । घाति कर्मों को नष्ट करनेवाले । राग द्वेष के विजेता । उपदेशादि का दान दे कर भव्य प्राणियों को जीवनदानद्वारा जिलानेवाले । संसाररूप समुद्र को तैर कर सेवकों को तैरानेवाले। स्वयं तत्व को जानकर और दूसरों को तत्वबोध करनेवाले। स्वयं कर्मपिंजरे से मुक्त हुए और दूसरों को मुक्ति दाता, स्वयं सर्व पदार्थों को जानने और देखनेवाले, तथा कल्याणकारी, अचल, रोग रहित, अनन्त वस्तु विषयक ज्ञानस्वरूप, आदि अन्त के अभाव से क्षय रहित, बाधा तथा पुनरागमन से रहित, सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए, भयको जीतनेवाले ऐसे श्री जिन भगवन्त को नमस्कार हो । इस प्रकार सर्व जिनेश्वरों को नमस्कार कर शक्रेंद्र श्री वीरप्रभु को नमस्कार करता है । श्रमण भगवन्त श्री महावीर जो पूर्व के तीर्थंकरोंद्वारा कथन किये हुए और जो सिद्धिगति नामक स्थान For Private And Personal दूसरा व्याख्यान. ॥ २१ ॥
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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