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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir नौवां व्याख्यान. श्री | कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद। ॥१४४॥ मल्लक आदि का परिभोग करना और सचित्तादि का परित्याग करना । उसमें सचित्त द्रव्य-अति श्रद्धावान् राजा और राजा के मंत्री सिवा शिष्य को दीक्षा न देना । अचित द्रव्य-वस्त्रादि ग्रहण न करना। मिश्र द्रव्यउपधि सहित शिष्य ग्रहण न करना । क्षेत्र-स्थापना-एक योजन और एक कोस-पाँच कोस तक आना जाना कल्पता है। बीमार के लिये वैद्य 'औषधि के कारण चार या पांच योजन तक कल्पता है। काल स्थापना-चार महीने तक रहना और मावस्थापना क्रोधादि का परित्याग और ईर्यासमिति आदि में उपयोग रखना ॥८॥ चातुर्मास रहे साधु साध्वियों को चारों दिशा और विदिशाओं में एक योजन और एक कोस तक अर्थात् | पाँच कोस तक का अवग्रह कल्पता है । अवग्रह कर के 'अहालंदमिव ' जो कहा है उसमें अथ यह अव्यय है और लंद शब्द से काल समझना चाहिये । उसमें जितने समय में भीना हुआ हाथ मूक जाय उतने कालको जघन्य लंद कहते हैं पांच अहोरात्रि पांच समग्र रातदिन को उत्कृष्ट लंद करते है और इसके बीच का काल मध्यम लंद कहलाता है। लंदकाल तक भी अवग्रह के अन्दर रहना कल्पता है, पर अवग्रह से बाहर रहना नहीं कल्पता। अपि शब्दसे याने अलंदमपि कहनेसे अधिक काल तक ६ मास तक एक साथ अवग्रह में रहना कल्पता है, परन्तु अवग्रह के बाहर रहना नहीं कल्पता । गजेंद्र पद आदि पर्वत की मेखला के ग्रामों में रहे हुए साधु साध्वियों को उपाश्रय से छह ही दिक्षाओंमें जानेका ढाई कोस और आने जानेका पाँच कोस का अवग्रह होता है। अटवी, जलादिसे व्याघात होने पर तीन दिशाओं का, दो दिशाओं का या एक दिशा का अवग्रह जानना ॥१४४॥ For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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