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नाथ प्रभु की प्रतिमा दिखलाइ जिसके दर्शन से प्रतिबोधित हो उसने श्री प्रभवस्वामी के पास दीक्षा ग्रहण की फिर प्रभवस्वामीजी श्री शय्यं भवसूरि को अपनी पाठ पर स्थापन कर स्वर्ग गये ।
श्री शय्यं भवसूरि - श्रीशय्यं भवने भी सगर्भा तजी हुई अपनी स्त्री से जन्मे हुए मनक नामक पुत्र के हितार्थ श्रीवैकालिक सूत्र की रचना की । श्रीयशोभद्रसूरि को अपनी पाट पर स्थापित कर वे भी श्रीवीर से अठानवें वर्ष बाद स्वर्ग सिधारे ।
श्री यशोभद्रसूरि - वच्छगोत्रीय मनक पिता स्थविर आर्य शय्यंभव के तुंगीकायन गोत्रीय स्थविर आर्य यशोभद्र शिष्य थे । श्री यशोभद्रसूरि भी श्री भद्रबाहु तथा संभूतिविजय इन दो शिष्यों को अपनी पाट पर स्थापन कर स्वर्ग गये ।
श्री संभूतिविजय तथा भद्रबाहुस्वामी - अब यहाँ पर संक्षिप्त वाचना से स्थविरावली कहते हैं । संक्षिप्त वाचना से आर्य यशोभद्र से आगे स्थविरावली इस प्रकार कही है। तुंगीकायन गोत्रीय स्थविर आर्य यशोभद्र के दो स्थविर शिष्य थे । एक माढर गोत्रीय स्थविर संभूतिविजय और दूसरे प्राचीन गोत्रीय स्थविर आर्य भद्रबाहु | श्री यशोभद्र की पाट पर श्री संभूतिविजय और आर्य भद्रबाहु नामक दो पट्टधर हुए। उसमें श्री भद्रबाहु का सम्बन्ध इस तरह है- प्रतिष्ठानपुर में वराहमिहिर और भद्रबाहु नामा दो ब्राह्मणोंने दीक्षा ली । उसमें मद्रबाहु को आचार्य पद देने से गुस्से होकर वराहमिहिरने ब्राह्मण का वेश धारण कर वराहसंहिता बना कर
१ दक्षिण का पेठणशहर.
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