SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भी कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद । ॥ १०३ ॥ www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रभुने पानी रहित छट्ठ तप किया हुआ था, विशाखा नक्षत्र में चंद्र योग आने पर शुक्ल ध्यान के प्रथम के दो भेद ध्याते हुए प्रभु को अनन्त अनुपम यावत् श्रेष्ठ केवलज्ञाने और केवलदर्शन प्राप्त हुआ जीवों के भावों को देखते और जानते हुए भगवन्त विचरने लगे । । अब सब भगवन्त का परिवार । पुरुषप्रधान अर्हन् श्रीपार्श्व प्रभु के आठ गण और आठ ही गणधर थे। एक वाचनावाले यतिसमूह को १ जैन सम्प्रदाय में ज्ञान के पांच भेद हैं- पहला मतिज्ञान जिस से कि मनुष्य हरएक बात को विचार सकता है- समझ सकता है। दूसरा श्रुतज्ञान है जिस के द्वारा मनुष्य हरएक बात को कह सकता है और सुन सकता है। तीसरा अवधिज्ञान है कि जिस के द्वारा मनुष्य पांचों इंद्रियों से हजारों लाखों करोंडों यावत् असंख्य योजनों पर रही हुई वस्तु को भी अपने ज्ञान बल से देख सकता है और जान सकता है। चौथा मनः पर्यव ज्ञान है जिस से मनुष्य को ऐसी शक्ति पैदा होजाती हैं कि वह एक दूसरे के मन की बातों को भी जान लेता है। पांचवां केवलज्ञान है यह ज्ञान पहले चार ज्ञानों से अत्यंत निर्मल लोकालोकप्रकाशक और सर्व भावों को चाहे वो रूपी या अरूपी हों देखने और जानने की ताकत रखता है। इस से बढकर कोई ज्ञान नहीं है। कुछ लोगोंने इसको ब्रह्मज्ञान माना है, कुछ मतावलंबिओंने इसको अलौकिक शक्ति माना है और कुछ शास्त्रकारोंने इसे योग शक्ति की पराकाष्ठा माना है । यह ज्ञान जिसको पैदा होजाता है वो यथार्थवादी होता है, आप्त सर्वज्ञ कहा जाता है। उसके आगे लोकालोक की कोई चीज छानी नहीं रह जाती। सर्व ही तीर्थंकर भगवंत घरबार छोड़कर दीक्षा लेकर तपस्या कर के इस केवलज्ञान को हांसिल करने की ही चेष्टा करते हैं। और जब उन्हें यह ज्ञान हांसिल होजाता है तभी वो संसार को मोक्ष का मार्ग बतलाते हैं । उनके कहे हुए मार्ग पर चलनेवालों को भी आखीर जाकर केवलज्ञान होता है और मोक्ष को प्राप्ति होती है । For Private And Personal सातवां व्याख्यान. ॥ १०३ ॥
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy