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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir व्याख्या की है वैसे ही हम भी करते हैं। कितनेएक कहते हैं कि कल्पसूत्र का पुस्तकाकार में लिखाने का काल बतलाने के लिए यह सूत्र श्रीदेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणने लिखा है, इससे यह अर्थ निकलता है कि जैसे श्रीवीर | निर्वाण से नवसौ अस्सी वर्ष बीतने पर सिद्धान्त पुस्तकारूढ हुआ तब कल्पसूत्र भी पुस्तकारूढ हुआ है। कहा भी है कि-श्री वीर भगवान् से नव सौ अस्सी वर्ष पर वल्लभीपुर नगर में श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण प्रमुख सकल संघने पुस्तक में आगम लिखे । दूसरे कहते हैं कि नवसौ अस्सी वर्ष पर आनन्दपुर में ध्रुवसेन राजा जो कि पुत्र मृत्यु से दु:खित था उसको आश्वासन देने के लिए यह कल्पसूत्र सर्व प्रथम संघ समक्ष महोत्सवपूर्वक पंडितोंने पांचना प्रारम्भ किया। इत्यादि अन्तर वाच्य के वचन से श्रीवीर निर्वाण से नव सौ अस्सी वर्ष बीतने पर कल्पसूत्र की सभा समक्ष वाचना हुई यह बताने के लिए यह सूत्र रक्खा है। परन्तु तत्व तो केवलीगम्य है । वाचनान्तर में यह भी देखा जाता है कि यह नवसौ तिराणवेवाँ वर्ष जाता है। कितनेएक कहते हैं कि वाचनान्तर का तात्पर्य-दुसरी प्रत में 'तेणउए' ऐसा पाठ मिलता है। अर्थात् किसी प्रत में नव सौ अस्सी और किसी में नवसौ तिराणवें लिखा मिलता है। कितनेएक कहते हैं कि वीर निर्वाण से नवसौ अस्सी वर्ष बीतने पर कल्पसूत्र पुस्तकरूप में लिखा गया और वाचनान्तर से नवसौ तिराण में कल्पसूत्र की सभा में वाचना हुई। इसी प्रकार श्री मुनिसुन्दरमरिने अपने बनाये हुए स्तोत्ररत्नकोश में भी कहा है कि 'श्रीवीर से ९९३ वर्ष में चैत्य से पवित्र ऐसे आनन्दपुर में ध्रुवसेन राजाने महोत्सवपूर्वक सभा में कल्पसूत्र की For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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