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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नित्यप्रति भोजन भी प्रभुने नहीं किया था । अब केवलज्ञान का वर्णन करते हैं । भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति. Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir जब भगवान की दीक्षा का तेरहवां वर्ष चल रहा था। तब ग्रीष्मकाल के दूसरे महिने में चौथे पक्ष में वैशाख शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन पूर्व दिशा की तरफ छाया जाने पर प्रमाण को प्राप्त हुई, पिछली पोरसी के समय, सुव्रत नामा दिन में, विजय नामा मुहूर्त्त में, जृंभिक नामा ग्राम नगर के बाहर, ऋजुवालुका नामा नदी के किनारे, व्यावृत्त नामक एक पुराणे व्यन्तर के मंदिर के बहुत दूर भी नहीं और अति नजदीक भी नहीं, श्यामक नामा कौटुम्बिक के खेतमें, साल नामा वृक्ष के नीचे, जैसे गाय दूहने बैठते हैं उस तरह के उत्कटिक आसन से बैठकर आतापना लेते हुए, जलरहित छुट्ट की तपस्या करते हुए, तथा चंद्रमा के साथ उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग आजानेपर, ध्यानान्तर में वर्तमान अर्थात् शुक्लध्यान के जो चार भेद हैंप्रथम पृथक्त्ववितर्कवाला सविचार, दूसरा एकत्ववितर्कवाला अविचार, तीसरा सूक्ष्मक्रियअप्रतिपाति तथा चौथा उच्छिन्नक्रिय अप्रतिपाति, इनमें से प्रथम के दो भेदोंवाले ध्यान को ध्याते हुए प्रभुको अनन्त वस्तु विषयक अनुपम, आवरणरहित संपूर्ण तथा सर्व अवयवों सहित केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुए । इस प्रकार केवलज्ञान उत्पन्न होने पर श्रमण भगवान श्रीमहावीर प्रभु अर्हन् हुए अर्थात् अशोकवृक्षादि प्रातिहार्यसे पूजने योग्य हुए। राग द्वेष को जीतनेवाले जिन हुए । केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हुए। देव, १५ For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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