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कान आ जावे!। | इस प्रकार वर्षीदान देकर प्रभुने फिर नन्दिवर्धन राजा से कहा-भाई अब आपके कथनानुसार भी समय | पूर्ण होगया है अतः मैं दीक्षा ग्रहण करूँगा। यह सुन कर नन्दी राजाने भी ध्वज, तोरणादि से बाजार तथा कुण्डपुर नगर को देवलोक के समान सजाया । नन्दिवर्धन राजा और इंद्रादिने सुवर्ण के, चाँदी के, मणि के, सोना चाँदी, सौनो रत्नों, सुवर्ण चाँदी मणि और मट्टी आदि प्रत्येक के एक हजार आठ कलशे और दूसरी भी सब सामग्री तैयार कराई।
फिर अच्युतेंद्रादि चौसठ इंद्रोंने आकर भगवान का अभिषेक किया। देवकृत कलशे दिव्य प्रभाव से नन्दिवर्धन राजा के बनवाये हुए कलशों में प्रविष्ट होने से अत्यन्त शोभते हैं। देवताओं द्वारा क्षीरसमुद्र से लाये हुए पवित्र जल से नन्दिवर्धन राजाने प्रभु का अभिषेक किया। उस समय इंद्र झारी तथा सीसा (दर्पण) हाथ में लेकर प्रभु सन्मुख खड़े जय जय शब्द बोलते थे। इस प्रकार प्रभु को स्नान कराये वाद गन्धकषाय नामक वस्त्र से उनका शरीर रूक्ष किया और फिर दिव्य चंदन का विलेपन किया। दिव्य पुष्पों की मालायें उनके गले में धारण कराई। जिस के किनारों पर सुवर्ण का काम किया हुआ है ऐसे एक बहुमूल्य श्वेत वस्त्र से प्रभुने अपने शरीर को ढक लिया। हार से वक्षस्थल को शोभायमान किया, बाजुबन्ध और कंकणों से भुजाओं को सजाया, कर्णकुण्डलों से गालों को सुशोभित किया। अब श्री नन्दिवर्धन राजा द्वारा बनवाई हुई
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