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श्री
कल्पसूत्र
हिन्दी
अनुवाद |
॥ ६२ ॥
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संस्थान की मनोहरता के कारण सुन्दर देहवाले, विदेहदिन्ना त्रिशला क्षत्रियाणी के पुत्र, वैदेहदिन्न नामधारी गृहस्थावास में सुकुमाल और दीक्षा के समय परिग्रह सहने में कठिन श्रमण भगवन्त श्रीमहावीर प्रभु तीस वर्ष तक गृहस्थावास में रहकर, मातापिता के स्वर्गवास हुए बाद बड़े भाई नन्दिवर्धन की आज्ञा लेकर, जो गर्भ में प्रतिज्ञा की थी कि मातापिता जीतेजी दीक्षा न लूँगा सो पूर्ण हो जाने पर, आवश्यक सूत्र के अभिप्राय जब प्रभु के अठ्ठाईस वर्ष बीतने पर उनके मातापिता चौथे स्वर्ग में गये और आचारांग सूत्र के अभिप्राय से अनशन कर के बारहवें देवलोक में गये, तब प्रभुने अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन से कहा कि हे राजन् ! मेरा अभिग्रह पूर्ण हुआ है अतः मैं अब दीक्षा ग्रहण करूँगा । तब नन्दिवर्धन ने कहा- हे भाई ! माता पिता के विरह से खिन्न हुए को मुझे ऐसी बात कह कर घाव पर नमक डालने के समान क्यों करते हो ? प्रभुने कहाभाई ! माता, पिता, बहिन, भाई का सम्बन्ध तो इस जीवने अनेक दफा बांधा है, इस लिए नाहक क्यों प्रतिबन्ध करना चाहिये १ नन्दिवर्धन बोला-बन्धु । यह सब कुछ मैं जानता हूँ, परन्तु आप प्राणों से भी प्रिय हैं तो आपका विरह मुझे अत्यन्त पीड़ाकारक है इस लिए आप मेरे आग्रह से दो वर्ष तक घर में और रहो । प्रभुने बड़े भाई का कहना मंजूर किया और कहा कि - अच्छा, अब से लेकर घर में मेरे लिए किसी भी प्रकार का आरंभ समारंभ न किया जाय । मैं प्रासुक आहार पानी ग्रहण करके रहूँगा । नन्दिवर्धन राजाने भी यह बात मंजूर करली। इन दो वर्ष तक प्रभुने वस्त्रालंकार विभूषित रहकर भी प्रासुक एषणीय आहार
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पांचवां व्याख्यान.
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