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आचार्य हेमचन्द्रसूरि और उनका साहित्य
मालवा का राजा और सिद्वराज दोनों दुश्मन थे । इनकी यह शत्रुता करीव पूर्व की दो तीन पीढियों से चली आती थी। आखीर योग्य मन्त्रीओं की मदद में सिद्धराज ने मालवपति 'नरवर्मा' के उत्तराधिकारी 'यशोवर्मा' पर विजय पा ली । इस विजय में सिद्वराज की लक्ष्मी एवं राज्यसत्ता में अच्छी वृद्धि हुई । उज्जैन का समृद्धसाहित्य भडार. जो कि राजा भोज के समय से वहाँ था, वह भी इस विजय को लूट में पाटग आया था। उसमें भोजकृत भो कई मौलिक ग्रन्थ थे। एक भोज व्याकरण भी निकला । सिद्धराज विद्वान् था । उसको देखकर राजा का दिल हुआ कि 'मेरी प्रजा दूनरों का व्याकरण पढे इसमें शोभा नहीं है । वे कठिन और अपूर्ण भी हैं। अतः मेरे राज्य के विद्वानों के द्वारा मैं सर्वाङ्गपूर्ण एक संस्कृत व्याकरण बनाऊँ' । पण्डितसभा कचहरी में आई, तब राजा ने अपना विचार व्यक्त किया । किसी ने यह कार्य नहीं उठाया । हेमचन्द्राचार्य को राजा ने व्याकरण बनाने की नत्र प्रार्थना को। उन्होंने ने राजप्रार्थना को महर्ष स्वीकार किया। राजा के आदेश से कश्मीर आदि के भण्डारों से अन्य सामग्रो लाने की व्यवस्था हुई । तीन वर्ष में अपनी सर्वतोपाही प्रतिमा से आवार्य हेमचन्द्रसूरि ने सूत्र, वृत्ति, लिंगानुशासन, गणपाठ और धातुपाठ इन पांच अंगों से पूर्ण सवा लाख श्लोक
१. देखो प्रभावकचरित्र में हेमचन्द्रसूरि १५ वां सर्ग।
और द्वयाश्रय का
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