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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छपा हुआ अनूठा जैन साहित्य ज्योंही यह उत्तम साहित्य उनके हाथों में पहुंचा त्योंही जैनधर्म के और जैन साहित्य के विषय में उन लोगों के खराब और झूठे अभिप्राय बदलने लगे । वे लोग निन्दा के बदले जैन साहित्य और धर्म की मुक्तकण्ठ से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में स्तुति करने लगे ! किन्तु हतभाग्य से भारत में अब भी अधिकांश विद्वान् जैन धर्म और उसके साहित्य से ठीक ठीक परिचित नहीं है। इसी का परिणाम है कि कभी डा० ईश्वरी प्रसाद जी अपने इतिहास में जैन धर्म का अयथार्थ वर्णन लिख देते हैं, तो दूसरे अवसर पर मि० मुंशी जसे विद्वान् जैनों पर झूठे लाञ्छन लगाते हैं। इससे स्पष्ट है कि जैन साहित्य का प्रकाश हो जाने पर भी उसका प्रचार काफी नहीं हो पाया है । तो भी जो कुछ प्रचार हुआ है उसका फल यह निकला है कि बम्बई कलकत्ता और बनारस तथा यूरोप की कई यूनिवर्सिटियों में जैन साहित्य को सम्माननीय स्थान मिला है । जाता है कि डा० होपकीन्स के विचार फिराने में बहुत लोगों ने कोशिश की परन्तु उन्होंने किसी की बात नहीं मानी । श्री विजयधर्मसूरि महाराज और उनके शिष्य श्री इतिहासतत्त्व महोदधि श्री विजयेन्द्रसूरि म० ने भी यह प्रयत्न करना शुरू किया था कि वह जैन धर्म के विषय में अपना झठा अभिप्राय बदल दें तो अच्छा हो, क्योंकि इसके खराब विचार से यूरोप के नये विद्वानों पर जन साहित्य के विषय में बहुत खराब असर होता है । जैन समाज व साहित्यसेवी जानकर खुशी होंगे कि ता०१०-१२-२४ को उक्त डा० होपकीन्स ने आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरि कहा For Private and Personal Use Only १८५
SR No.020374
Book TitleHimanshuvijayjina Lekho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHimanshuvijay, Vidyavijay
PublisherVijaydharmsuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages597
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size18 MB
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