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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्ध-मागधी और प्राकृत इसे जन महाराष्ट्री या महाराष्ट्री कहते हैं। पर यह विचार ठीक नहीं जंचता; क्योंकि इसमें महाराष्ट्री के समस्त लक्षण नहीं पाये जाते हैं । कुछ साम्य देखकर इसे महाराष्ट्री कह देना नितान्त असङ्गत है । डा० याकोबी के इस विचार को अपने "प्राकृत व्याकरण" में डा० पिशलने भी अनुचित कहा है | यह जैनसूत्रों की भाषाको अर्ध-मागधी या आर्य भाषा ही सिद्ध करते हैं। प्रज्ञापनासूत्र में लिखा है कि, संस्कृत प्रभृति आर्यभाषाओं में अर्ध-मागधी का भी स्थान है । तत्त्वज्ञानमय और व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती) सूत्र में तो यहां तक लिखा है कि, इसे देवभाषा भी कहते है। . अर्ध-मागधी भाषा प्राकृत, पाली, महाराष्ट्री और मागधी आदि से कई अंशोंमें साम्य रखती है । यह भी शौरसेनी, मागधी, पाली, पेशाची आदि भाषाओं की तरह प्राकृतकी पुत्री है। प्राकृत-भाषाका अर्थ है, प्रकृति (स्वभाव ) जन्य भाषा यानि स्वाभाविक भाषा । "जिसमें व्याकरणादि जन्य काठिन्य उत्पन्न न हुआ हो, वैसा स्वाभाविक वचनप्रयोग प्राकृत-भाषा है ।" विक्रम सम्बत् ११२५ में नमि साधुने रुद्रटाकाव्यालङ्कार के टिप्पन में भी ऐसा ही कहा है। इस भाषा में स्वाभावतः माधुर्य १ "आर्यों त्वमार्षतुल्यं च द्विविधं प्राकृतं विदुः' . २ "प्राकृत के महान् पण्डित श्रीयुत पं० हरगोविन्ददास त्रि. प्रभृति का भी यही मत है । प्राकृति का अर्थ कुछ लोगों ने संस्कृत किया है, इसे पण्डित जी भ्रान्त मानते हैं। . For Private and Personal Use Only
SR No.020374
Book TitleHimanshuvijayjina Lekho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHimanshuvijay, Vidyavijay
PublisherVijaydharmsuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages597
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size18 MB
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