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१६४ महाकवि वागभट के जैन ग्रन्थ की व्याख्या में गडबड
जैनाचार्यों की प्राचीन ४-५ टीकाऐं' वर्तमान में उपलब्ध हैं, जिनमें से श्रीसिंहदेवगणि की सुन्दर टीका निर्णय सागर प्रेस बम्बई से करीब १५ साल हुए प्रकाशित हो चुकी है । इसी ग्रन्थ के ऊपर पंडित ईश्वरीदत्त शास्त्री जी ने 'प्राज्ञमनोरञ्जनी' नाम की नवीन टीका लिखी है । मुझे अभी तक मालूम नहीं होता कि पण्डित जी ने इसमें प्राचीन टीका से क्या विशेषता की ह ? हां यह विशेषता जरूर नजर पडती है कि जगह २ मूल लेखक (बागभट) के आशय को पण्डित जी ने अपने कुतर्क से विपरीत कर दिया है, किन्तु क्या ऐसा अनर्थ करने से ही साहित्य सुधार हो सकता है ? क्या ऐसी मनमानी कल्पना करने से ही बुद्धि को कृतार्थता हो सकती है ? इतिहास तो सापः २ कहता है कि वागभट्, जिन का अपरनाम बाहड भी था, वे परम विद्वान् श्रावक (जैन ) थे । उन्होंने शत्रुजय (पालीताणा) आदि कई तीर्थों में लाखों २ रुपये
१. जिनवर्धनसूरिकृत, क्षेमहंसगणिकृत, अनन्तभट्टसुतकृत, राजहंस उपाध्यायकृत और सिंहदेव गणिकृत ये पांच टीकाएं प्राचीन पुस्तक भंडारों में हैं।
२. षष्टिलक्ष (६०) युता कोटि व्ययिता यत्र मन्दिर स श्रीवागभट वो ऽत्र वर्ण्य ते विबुधैः कथम् ॥ वर्षे रुद्रार्कसंख्यैः स्वजनवचसा विक्रमात्प्रियातैर्यातैनाः सिद्धशैले (शत्रुजये) जिनपतिभुवन वाग्भट: प्रोद्धार ॥ प्रबन्धचिन्तामणि, कुमारपालप्रबन्ध पृ० २२० की टिप्पणी में क.लिदास सकलचन्द्र से मुद्रित की गई आवृत्ति ।
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