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मंडपदुर्ग और अमात्य पेथड
अलाउद्दीन खुनी आदि बादशाहों के आक्रमणों से हिन्दुस्तान के लोग त्राहि त्राहि पुकार रहे थे । जब इन बादशाहों ने वैदिक और जैनों के मन्दिर व धर्मस्थानों का निर्दयतापूर्वक ध्वंश करके दुष्ट रोजाओं में अग्रिम स्थान पाया था । जब ईस्वीसन् १२६७ में कर्ण वाघेला के पास से गुजरात का राज्य छीनकर नंदनवन जैसी गुजरात भूमि की शोभा को भी भारी धक्का पहुंचाया था, तब भी यह मांडवगढ निर्भय और वर्धमान कीर्ति वाला था ।
इससे पूर्व भी रामचन्द्र और सीता जी के समय में श्रीसुपार्श्वनाथ की जैन मूर्ति बनी हुई थी। ऐसा उपदेश तरङ्गिणी में लिम्वा है । कवि ऋषभदास भी एक चैत्यवंदन में यही बात प्रकट करता है:
__ "मांडवगढनो राजियो नामे देव सुपास"। यहाँ अनेक राजा बादशाहों की राजधानी-दीर्घस्थिति रही है । संग्रामसिंह सोनी जैसे सरस्वतीभक्त, और गदासाह, भैंसा साह जैसे धनकुबेर श्रीमंत यहां रहते थे। बर्तमान में इस शहर की दयनीय दशा है । अनेक खंडहरों से व्याप्त यह राजगृही, श्रावस्ती, चन्देरी, गन्धारके समान, एक अप्रसिद्ध गाँवडे के रूप में स्थित है। अभी भी यहाँ कस्तूरी का महल, बडो २ बावडीयाँ, इमारतें, मस्जीद व जैन मन्दिर देखने योग्य है । यह जैनों का तीर्थस्थान है । धार से ११ मील दूर है । पक्का गोला ठेठ तक गया है । महु और धार से मोटर भी जाती है । यह धार स्टेट के अधीन है । आग्रारोड पर स्थित गुजरी से भी कच्चे रास्ते मांडवगढ जाने का भी रास्ता है।
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