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व्रण-शंक व्रण-पु० [सं०] फोड़ा, घाव, जख्म । -कारक गैस- समापन-पु० व्रतकी पूर्ति । -स्नान-पु. व्रतके बादका स्त्री० [हिं०] (ब्लिस्टर गैस) एक तरहकी विषाक्त गैस, स्नान । -हानि-स्त्री० व्रतका परित्याग । जिसका संस्पर्श होनेसे शरीरपर चकत्ते-से निकल आते हैं। व्रतति, व्रतती-स्त्री० [सं०] लिपटनेवाली लता फैलाव, -ग्रंथि-स्त्री० फोड़ेकी गाँठ। -पहा-पट्टक-पु०,- | विस्तार । पट्टिका-स्त्री० फोड़ेपर बाँधी जानेवाली पट्टी।-शोधन- व्रती(तिन्)-वि० [सं०] व्रतका अनुष्ठान करनेवाला; पु० घावकी सफाई। -संरोहण-पु० घावका भरना। | धर्माचारी । पु० ब्रह्मचारी संन्यासी; यजमान । व्रणित-वि० [सं०] जिसे घाव लगा हो, आहत (अलस-नाचट, वाचड-स्त्री० एक अपभ्रंश भाषा जो पहले सिंधमें रेटेड)जो व्रणमें परिणत हो गया हो; जिसमें व्रण हो बोली जाती थी; पैशाचिक भाषाका एक भेद । गया हो।
बात-पु० [सं०] समूह, दल, झुंड; विवाहोत्सव में सम्मिव्रणी(णिन् )-वि० [सं०] जिसे व्रण हुआ हो; आहत । लित होनेवाले लोग; मनुष्य; शारीरिक श्रम; दैनिक श्रम, व्रत-पु० [सं०] धार्मिक कृत्य, धार्मिक अनुष्ठान, नियम, | मजदूरी। -पति-पु० संघका अध्यक्ष । संयम आदि; पुण्यके विचारसे उपवास करना; प्रतिज्ञा। वाय-पु० [सं०] संस्कारहीन, जातिच्युत द्विज । -ग्रहण-पु० कोई धार्मिक कार्य करनेका संकल्प करना; ब्रीड-पु० [सं०] लज्जा। संन्यास लेना । -चर्या-स्त्री० धार्मिक अनुष्ठान, व्रत वीडन-पु० [सं०] अपकर्ष शर्म, लज्जा; नम्रता । रखना। -पारण-पु०,-पारणा-स्त्री० व्रत, उपवासकी | ब्रीडा-स्त्री० [सं०] लज्जा संकोच नम्रता । समाप्ति । -भंग-पु. व्रत, प्रतिशाका खंडित हो जाना। ब्रीडित-वि० [सं०] लज्जित: विनीत । -लोप,-लोपन-पु० व्रत-भंग । -विसर्जन-पु० व्रत ब्रीहि-पु० [सं०] चावल; चावलका दाना बरसातमें पकनेसमाप्त करना । -संरक्षण-पु. व्रतका पालन । - वाला धान ।
श-देवनागरी वर्णमालाका तीसवाँ व्यंजन, ऊष्म वर्ण। । फॅकना-युद्धकी घोषणा करना; देश, व्यक्ति, जातिमें शंकना*-अ० क्रि० संदेह करना; डरना ।
जागरण, उत्साह आदिकी भावना भरना । शंकनीय-वि० [सं०] जिसके संबंधमें शंका करनेकी । शंखासुर-पु० [सं०] ब्रह्माके यहाँसे वेद चुराकर समुद्र में गुंजाइश हो, शंकायोग्य ।।
छिपानेवाला एक राक्षस (इसीको मारनेके लिए विष्णुने शंकर-पु० [सं०] शिव शंकराचार्य; एक छंद; एक राग; मत्स्यावतार लिया था); मुर राक्षसका पिता । भीमसेनी कपूर * दे० 'संकर'। वि० कल्याणकारी । शंखिनी-स्त्री० [सं०] कामशास्त्रके अनुसार स्त्रियोंके चार शंकरा-पु० एक राग । स्त्री पार्वती मंजिष्ठा ।
भेदों में से एक; बौद्धों द्वारा मानी जानेवाली एक शक्ति शंकराचार्य-पु० [सं०] अद्वैतवादके प्रवर्तक प्रसिद्ध दार्श- (देवी); एक प्रकारकी अप्सरा एक वनौषधि । निक ( ये ईसाकी आठवीं शतीके अंत तथा नवीं शतीके | शंगरफ-पु० [फा०] ईगुर, शिंगरफ। आरंभमें विद्यमान थे)।
शंजरफ-पु० [फा०] इंगुर ।। शंकरी-स्त्री० [सं०] पार्वती; मजीठ; शमी वृक्ष ।
शंठ-पु० [सं०] मूर्ख व्यक्ति हिजड़ा। शंका-स्त्री० [सं०] संशया भय; एक संचारी भाव । -शंड-पु० [सं०] साँड़ा नपुंसक; अंतःपुरका परिचारक । जनक-वि० शंका उत्पन्न करनेवाला । -निवारण-पु० शंपा-स्त्री० [सं०] बिजली, विद्युत् । संशयका दूर होना या दूर किया जाना । -निवृत्ति- शब-पु० [सं०] इंद्रका वज्र; बिजली । स्त्री० दे० 'शंका-निवारण' । -शील-वि० शंका करना शंबर-पु० [सं०] जल; बादल धन; युद्ध; एक राक्षस । जिसका स्वभाव हो, जो प्रायः शंका किया करता हो। -सूदन-पु०कामदेव (प्रद्युम्न जिन्होंने शंबरको मारा था)। -समाधान-पु० शंकाका निराकरण ।
शंबरारि-पु० [सं०] कामदेव । शंकित-वि० [सं०] शंकायुक्त भीत ।
शंबल-पु०[सं०] तट; यात्राके लिए भोज्य पदार्थ, पाथेय । शंकु-पु० [सं०] भाला; कील; खूटी; बाणकी नोक; हूँठ । शंबु, शंबुक, शंबुक्क-पु० [सं०] घोंघा । शंकुला-स्त्री० [सं०] सुपारी काटनेका औजार, सरौता। शंबूक-पु० [सं०] घोंघा; शंख, हाथीकी सूंड़की नोक; शंख-पु० [सं०] समुद्र में पैदा होनेवाले एक जंतुका खोल रामराज्यमें बसा एक शूद्र तपस्वी। या घर जो पत्थरसा कड़ा और सफेद होता है; सौ पद्मकी शंभु-पु०[सं०] शिव; ग्यारह रुद्रोंमें प्रधान रुद्र ।-लोकसंख्या; शंखासुर ( जो विष्णु द्वारा मारा गया ); ललाट | पु० कैलास, शिवलोक । हाथीके दोनों दाँतोंके बीचका भाग। -क्षीर-पु० असंभव शंस, शंसा-स्त्री० [सं०] प्रशंसा; इच्छा; मंगल-कामना। बात । -चरी,-चर्ची-स्त्री० (ललाटका) चंदनका शऊर-पु० दे० 'शुऊर'। -दार-वि० कामका दंग टीका । -धर-पु० विष्णु; कृष्ण । -पाणि,-भृत्-पु० | जाननेवाला, सलीकादार । विष्णु । -विष-पु० संखिया । मु०-बजना-सफलता | शक-पु० [अ०] संदेह, संशय, शंका; भ्रांति; [सं०] मिलना । -बजाना सफलता मिलनेपर आनंद करना प्राचीन कालमें शकद्वीप(मध्य एशिया)में रहनेवाली एक (व्यंग्य) असफल होनेपर पछताना, बकबक करना आदि।। समृद्ध जाति । -संवत्-पु० ईसवी सन्के ७८ वर्ष पीछे
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