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फन-फरमान या टहनियाँ निकल आना + उबलते समय 'फद-फद' फबना-अ०क्रि० शोभा देना, सजना, भला मालूम होना। शब्द करना।
फबाना-स० क्रि० ऐसे स्थानपर लगाना जहाँ सजे या .. फन-पु० साँपका सिर उस स्थितिमें जब वह फैलकर छत्रके | सुंदर जान पड़े। आकारका हो गया हो; दे० 'फन'।
फबि*--स्त्री० शोभा, सुंदरता, छबि। फ्रन, फन्न-पु० [अ०] गुण, हुनर; खूबी, विशेषता फबीला-वि० शोभा देनेवाला, सजनेवाला, सुंदर । विद्या, इत्म; जौहर, कौशल; कारीगरी; धोखा, फरेब, | फ़रंग, फरंज-पु० [फा०] दे० 'फिरंग'। छल, चालाकी, मकारी। [हर-मन-मौला-हर काममें | फर-*पु० दे० 'फल'; दे० 'फड़'; विछावन; युद्ध, रण,होशियार, प्रत्येक कार्यमें निपुण । ]
'फरमें फते बुंदेलन पाई-छत्र० [सं०] फलक, ढाल । फनकना-अ० क्रि० 'फन-फन' शब्द करना; सनसना- फरक-पु० दे० 'फ़र्क । * स्त्री० दे० 'फड़क' । हटके साथ चलना।
फरक-पु० [अ०] दे० 'फर्क' । फनगना -अ० क्रि० कला फूटना, पनपना।
फरकन*-स्त्री० फड़कनेकी क्रिया या भाव, फड़कना । फनगा-पु० फतिंगा; अंकुर, कल्ला ।
फरकना*-अ० क्रि० दे० 'फड़कना'। फनना -अ० कि० कामका आरंभ होना, ठाना जाना। फरका* --पु० बड़ेरपर रखा जानेवाला छप्पर; दरवाजेपर फनफनाना-अ० क्रि० 'फन-फन' शब्द करना; तेजीसे | लगाया जानेवाला टट्टर-'चोरी करत उघारत फरको'हिलना।
सू० । फनस-पु० पनस, कटहल ।
फरकाना*-स० क्रि० दे० 'फड़काना'; अलग करन।। फना-स्त्री० [अ०] विनाश, अस्तित्व नष्ट होना, मिटना; फरचा-वि० जो जूठा न हो, साफ, शुद्ध । मृत्यु, भीत; परमात्मा और जीवात्मा या उपास्य और फरजंद-पु० [फा०] देटा। उपासकका अभेद होना (सूफी मत)। वि० नष्ट; मृत । फरजंदी-स्त्री० [फा०] पुत्रभाव, बाप-बेटेका नाता। फनाना-स० क्रि० आरंभ कराना तैयार कराना। फरज-स्त्री० [अ०] दरार,शिगाफ; फैलाव । पु० दे० 'फर्ज'। फ्रनिंग-पु० सर्प, नाग ।
फरजानगी-स्त्री० [फा०] बुद्धिमानी। फनिंद-पु० दे० 'फणींद्र' ।
फरजाना-वि० [फा०] बुद्धिमान् । फनि* --पु० दे० 'फणी'; दे० 'फण' । -धर-पु० साँप । फरजी-पु० [फा०] शतरंजका वजीर जो सबसे महत्त्वका -पति,-राज-पु० दे० 'फणिपति'।
मोहरा होता है। -बंद-पु० पैदलके जोरपर पड़नेवाली फनिक, फनिग-पु० साँप; फतिंगा ।
वजीरकी शहा वजीरके जोरपर बैठा हुआ मोहरा । मु०फनी*-पु० दे० 'फणी' । स्त्री० दे० 'फण' ।
बनाना-पैदलका वजीरके खाने में पहुँचकर वजीर वन फनूस*-पु० दे० 'फ़ानूम'।
जाना। फनी-स्त्री० पञ्चर; कपड़ा बुननेका एक औजार, राछ । फरजी-पु० दे० 'फरजी वि० 'जी' । फपक-स्त्री० वृद्धि, बाढ़ ।
फरद-स्त्री० दे० 'फर्द'। फफकना-अ० क्रि० रुक-रुककर रोना ।
फरना*-अ० कि० दे० 'फलना'। फफदना -अ० क्रि० गोबर आदिका विकारविशेषके कारण फरफंद-पु० छल-कपट, फरेब, दाव-पेंच; नखरा । बढकर फैलना; दाद आदिका वृद्धिको प्राप्त होना या फरफंदी-वि० फरेबी, चालबाज । फैलना।
फर-फर-स्त्री० [फा०] जल्दी, तेजी। अ० जल्दी-जल्दी, फफसा -पु० फेफड़ा। वि० जो भीतरसे खाली हो, पोला; । धड़ाधड़ । मु०-उड़ाना-जल्दी-जल्दी पढ़ना । स्वादरहित, फीका।
फरफराना-अ० क्रि० दे० 'फड़फड़ाना'। फफूद-स्त्री० भुकड़ी। -विज्ञान-पु. (माइकोलाजी) फरफूंदा-पु० फतिंगा। भुकड़ी लगनेके कारणों, निरोधक उपायों आदिपर सम्यक फरमा-पु० [अ० 'फ्रेम'] ढाँचा; वह ढाँचा जिसपर मोची रूपसे विचार करनेकी विद्या ।
जूता बनाता है; [अं॰ 'फार्म', फा'] कंपोज किया और फर्फ दी*-स्त्री० सूतकी डोरी जिससे स्त्रियाँ साड़ी या धोती- चेसमें कसा हुआ छपनेके लिए तैयार मैटर; पुस्तक आदिकी गाँठ बाँधती है, नीवि, नारा; फल, लकड़ी आदिपर, का एक बार में छपा हुआ अंश, जुज । म०-देना-चेसबरसातमें या सीलके कारण जमनेवाली काईकी तरहकी में कसकर मैटरको छापनेके लिए तैयार कर देना। सफेद वस्तु, भुकड़ी।
फरमाइश-स्त्री० [फा०] आशा, आशारूपमें कुछ माँगना; फफोला-पु० जलने, रगड़ खाने आदिसे शरीरपर होने कोई चीज भेजनेकी आशा (आर्डर)। वाला उभार जिसके भीतर चेप या पानी भरा रहता है, फरमाइशी-वि० [फा०] जिसकी फरमाइश की गयी हो, छाला, झलका, आबला । मु०-(दिलके) (फफोले) फरमाइश करके बनवाया, मँगवाया हुआ बढ़िया । फोड़ना-जली-कटी सुनाना ।
फरमान-पु० [फा०] आज्ञा; राजकीय आशा या आज्ञाफबती-स्त्री. प्रसंगानुकूल उक्ति; ऐसी बात जो किसीपर पत्र; अस्थायी कानूनके रूपमें निकली हुई राजकीय आशा ठीक-ठीक घटे, चुटीली बात । मु०-उड़ाना या कसना आर्डिनेस) । (फरमा)गुज़ार-पु० हाकिम, बादशाह । -चुटीली बात कहना, चुटकी लेना।
वि० आशा करनेवाला । -बरदार-वि० अधीन, आशाफबन-स्त्री० फबनेका भाव; शोभा, सौंदर्य ।
कारी, सेवक । -बरदारी-स्त्री० फरमाबरदार होनेका
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