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अक्रोध - अक्षि
जो कृष्णके चाचा और भक्त थे ।
अक्रोध - पु० [सं०] क्रोधका अभाव; क्रोधका नियंत्रण । वि० क्रोधरहित ।
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अक़्ल - स्त्री० [अ०] बुद्धि, समझ । -मंद - वि० चतुर, बुद्धिमान् । - मंदी - स्त्री० चतुराई ।- (क्ले) इंसानी - स्त्री० मानव-बुद्धि | - (क्ले) हैवानी - स्त्री० पशुबुद्धि । मु० आना - समझ होना । -का कसूर होना- अक्की कमी होना, बुद्धिका दोष का काम न करनाकुछ समझमें न आना । -का चक्करमें आना- हैरान होना, चकित होना । -का चरने जाना - समझ जाती रहना । - का चिराग गुल होना - अक्कु जाती रहना । - का दुश्मन - मूर्ख । -का पुतला - बहुत बुद्धिमान् । - का पूरा - मूर्ख, बुद्ध ( व्यंग्य ) । -का मारा - मूर्ख । -की पुड़िया - बुद्धिमती । -के घोड़े दौड़ाना - तरहतरहकी कल्पना करना। -के तोते उड़ जाना - होश ठिकाने न रहना । —के पीछे लट्ठ लिये फिरनानासमझीके काम करना । - खर्च करना- सोचनासमझना, समझको काम में लाना। -गुम होना - अक्ल मारी जाना, अक्का काम न करना । -जाती रहना - घबड़ा जाना |-ठिकाने होना - होशमें आना । —देनासमझाना-बुझाना | - दौड़ाना, - भिड़ाना, - लड़ानासोचना, गौर करना । - पर पत्थर पड़ना, - पर्दा पड़ना - अल जाती रहना । - मंदकी दुम - मूर्ख ( व्यंग्य ) । - मारी जाना - हतबुद्धि होना । - सठियानाबुद्धि भ्रष्ट होना । से दूर - बाहर होना - समझ में न आना ।
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अक्लांत - वि० जो थका न हो, कांतिरहित ।
अक्लिष्ट - वि० [सं०] क्लेशरहित, अक्कांत जो अशांत न हो; अनुद्विग्न; जो लिष्ट न हो, सरल ।
अक्की - वि० [अ०] बुद्धि-संबंधी, अहमें आनेवाली (वात); बुद्धिकृत | मु० - गद्दा लगाना - अटकलबाजी करना । अक्लेद्य - वि० [सं०] जो भिगाया या गीला न किया जा सके। अक्लेश-पुं० [सं०] क्लेशहीनता । वि० क्लेशर हित । अक्षंतव्य - वि० [सं०] अक्षम्य ।
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भक्ष- पु० [सं०] खेलनेका पासा; पासोंका खेल; चौसर; पहिया, चक्रः पहियेका धुरा; धरती की धुरी; गाड़ी; भूमध्यरेखा के उत्तर या दक्षिण किसी स्थानका गोलीय अंतरः रुद्राक्ष; सर्प; सोलह माशेकी एक तौल, कर्ष; एक पैमाना; तराजूकी डाँड़ी; अक्षकुमार । - कर्ण - पु० समकोण त्रिभुजकी सबसे लंबी भुजा । -काम-वि० द्यूतप्रिय । - कुमार - पु० रावणका एक पुत्र । - कुशल, - कोविद - शौंड - वि० जुआ खेलने में चतुर । क्रीड़ा - स्त्री० पासोंका खेल; जुआ । - द्यूत-पु० जुआ । -धर - वि० धुरेको धारण करनेवाला । पु० विष्णुः पहिया । धूर्तवि० जुआ खेलने में कुशल । -बंध- पु० दृष्टि बाँध देनेकी विद्या, नजरबंदी | -माला - स्त्री० रुद्राक्षकी मालाः वर्णमाला । - माली (लिन् ) - पु० रुद्राक्षकी माला धारण करनेवाला; शिवका एक नाम । -रेखास्त्री० धुरीकी रेखा । - विद् - वि० द्यूतज्ञ । -विद्यास्त्री० द्यूतविद्या; जुआ । -हीन- वि० अंधा ।
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अक्षणिक - वि० [सं०] स्थिर, ढ़ः जो क्षणिक न हो ! अक्षत - वि० [सं०] अखंडित, समूचा; क्षतहीन, जिसे घोट न आयी हो । पु० शिव; अखंडित चावल; लावा जौ; धान्य; हानिका अभाव, कल्याण; हिजड़ा । -योनिवि० जिसका कौमार्य भंग न हुआ हो । स्त्री० ऐसी कन्या ( विवाहित या अविवाहित ) ।
अक्षता- स्त्री० [सं०] कुमारी; अक्षतयोनि कर्कट भृंगी । अक्षत्र - वि० [सं०] क्षत्रियोंसे रहित । अक्षम-वि० [सं०] क्षमा-रहित; असहिष्णुः ईर्ष्या करनेवाला; क्षमता-रहित; असमर्थ ।
अक्षमा - स्त्री० [सं०] अधीरता; क्रोध; ईर्ष्या असमर्थत। । अक्षम्य - वि० [सं०] क्षमा न करने योग्य |
अक्षय - वि० [सं०] क्षयरहित, अविनाशी; निर्धन | पु० परमात्मा । - तृतीया - स्त्री० वैशाख शुक्ला तृतीया । -धाम- पु० बैकुंठ; मोक्ष । - नवमी - स्त्री० कार्तिक शुक्ला नवमी -पद-पु० मोक्ष - वट वृक्ष - पु० प्रयाग और गया के वटवृक्ष विशेष नाश न होना माना जाता है । ) अक्षयी (यिन) - वि० [सं०] जिसका नाश न हो । अक्षय्य - वि० [सं० ] क्षय न होने योग्य; कभी न चुकनेवाला ।
( इनका प्रलय में भी
अक्षर - वि० [सं०] अविनाशी, अपरिवर्तनशील, अच्युत, नित्य, अक्षय । पु० वर्ण, हर्फः स्वरः शब्दः ब्रह्म; आत्मा; शिवः विष्णुः खड्गः आकाशः मोक्षः तपस्या; जल; अपामार्ग । - जीवक, -जीवी (विन ) - पु० लिखनेका पेशा करनेवाला, लेखक | -ज्ञान- पु० लिख-पढ़ लेनेकी योग्यता, साक्षरता । - तूलिका - स्त्री० लेखनी | - न्यास - पु० लिखावट; तंत्र की एक क्रिया । - मालास्त्री० वर्णमाला । - वर्जित, शत्रु-वि० अपढ़, निरक्षर । - विन्यास - ५० वर्णविन्यास, हिज्जेः लिपि । अ० अक्षरशः - एक एक अक्षर, हर्फ-वहर्फ, सोलहों आने, पूर्णतया ।
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अक्षरारंभ - पु० [सं०] पहले-पहल अक्षरोंका ज्ञान कराना । अक्षरार्थ - पु० [सं०] शब्दार्थ; संकुचित अर्थ । अक्षरी - स्त्री० [सं०] वर्षाऋतु | [हिं०] अक्षर-क्रम, हिज्जे, वर्त्तनी ।
अक्षरौटी-स्त्री० वर्णमाला लिपिका ढंग; सितारपर बोल निकाल्नेकी क्रिय! | अक्षांश - पु० [सं०] भूमध्यरेखा से उत्तर या दक्षिणका
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अंतर ।
अक्षार - वि० [सं०] क्षाररहित । पु० प्राकृतिक लवण | - लवण- पु० प्राकृतिक लवण, वह नमक जिसमें खार न हो; बिना नमकका हविष्यान्न | अक्षि-स्त्री० [सं०] आँख; दोकी संख्या । - कंप - पु० पलक मारना । - कूट, - कूटक- पु० आँखकी पुतली, नेत्रगोलक । -गत- वि० ध्ष्ट देखा हुआ; विद्यमान; द्वेष्य ।-गोलक० आँखका टेंडर | तारक- पु० - तारा स्त्री० आँखकी पुतली । - निमेष - पु० पल, क्षण - पक्ष्म (न्) - पु० बरौनी । - पटल - पु० आँखका परदा, आँखके गोलक के पीछेकी झिल्ली । -लोम (न्) - पु० बरौनी । - विकूणित,