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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ गुरुगुणषटत्रिशतपटनिशिकाबालावबोष. साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकाना परम धर्माधारभूत वर्तमान आगमधर ते आचार माहरा गुरु जाणवा. एम छत्रीस छत्रीसीना १२९६ वारसे छन्नु गुण जाणवा. ॥ ३७।। जइवि हु सूरिवराणां, सम्मं गुणकित्तणं करेउं जे। सकोवि नेव सका, कोहं पुण गाढमूढमई ? ॥३०॥ ____टबार्थ-यद्यपि आचार्य यथार्थ धर्मप्ररूपक यथार्थ मार्ग वरतता जे सूरि कहेता आचार्य वर कहेता प्रधान तेहना गुण क्षयोपशमी, क्षायकी, उपशमी, तथा औदयिक, सोमकारी, परोपकारीनो कांइ अंत नथी. ते गुणनो कीर्तन करवाने इन्द्र पण समर्थ नहीं तो हुँ जे गाढ मूढता सहित छे मात जेहनी ते किम संपूर्ण गुण कही शकुं ? पिण मोटकाना गुण कहेतां आत्मा गुणीरागथी एकत्व पाम्यो ते गुणनो अर्थी थाये, गुणार्थी थयो. आत्मा स्वगुणने प्रगट करे ते माटे चेतना पोतानी गुणीना गुण गावा जगाडवी-जागृत करवी. ॥ ३८ ॥ तहविहु जहा सुआओ, गुरुगुणसंगहमयाउ भत्तीए। इछत्तीसं छत्तीसीआउ, भणियाउ इह कुलए॥३१॥ टबार्थ-तो पिण यथासूत्रे कयुं छे. गुरु जे शुद्धतत्वना कथक तेना गुणनी छत्रीसीओ कही. ए कुलकने विषे पोताना गुणना संग्रह करवा निमित्ते तथा भक्तिएं गुणनी छत्रीस छत्रीसी करतां १२९६ बोल थया ते कह्या. इति ॥ ३९ ॥ सिरिवयरसेण सुहगुरु-सीसेणं विरइअं कुलगमेयं । पढिऊणमसढभावा, भव्वा पावंतु कल्लाणं ॥४०॥ इति गुरुगुणछत्तीसी समत्ता ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020365
Book TitleGurugun Shattrinshat Shattrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagarsuri
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year2000
Total Pages50
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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