________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षड्लक्ष्यामपि जातायां, निशीथसमये ततः // नास्पृशत्पटहं कोऽपि, देव्यासीदाकुला पुन गुण राज्या क्रमतः पुत्र्यां, प्रोक्तायां च नृपाज्ञया // अस्पृशत्पटहं विप्रः, क्षिप्रमागत्य कश्चना चरित्र. / 130 // विभातायां विभावर्या, ददृशुस्ते नरा द्विजम् // कुरूपं कुत्सितं कुब्ज, कृष्णवर्णच वामनम् / विज्ञातपटहस्पर्शवृत्तांतप्रीणिते नृपे // नृपस्य पुरुषा विप्रं, निन्यिरे नृपसंनिधौ // 231 // विषण्णचेताः सर्वोऽपि, तं विलोक्याभवज्जनः / / नृपतिस्तु विशेषेण, तेन देयास्य यत्सुतार मुंचतो गृह्णतो वापि, नाभवत्काचिदौचिती // वीक्ष्य ततो हृदः पूर्णान दत्ता चैव कन्यका / / विप्रः प्रोचे विलंबोऽत्र, राजन्मे जायते वृथा // कार्य कृतेन कार्यण, यदि तत्कारय द्रुतम् | | कुरूपत्वं ममालोक्य, बुध्दृया किं खिद्यसे मुधा // कुरूपो वा सुरूपोवा, कार्यकर्ता विलोक्यते / | राजादनादपि प्रायो, रिंगणं रूपतोऽधिकम् // किं क्रियेत पुनस्तेन, येन कार्यन सिद्धयति कोकिलानां स्वरो रूपं, नारीरूपं पतिव्रता // विद्यारूपं कुरूपाणां, क्षमारूपं तपस्विनाम् // E भूपतिर्मत्रिणं प्रोचे, तदिलंबक्रिया कुतः॥ अनेन कार्यतां कार्य, जीवतात् सा यथा तथा।||१३०। मंत्री प्राह प्रभो तथ्यं, परास्त विचारणा // कृते कार्ये प्रदातव्यमस्मै सर्व निवेदितम् // For Private and Personal Use Only