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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनगारधर्मामृतषिणी टी० म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् १४५ जेणेव महाणई तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एगढियाए मग्गणगवेसणं तं चेव जाव णूममोतुब्भे पडिवालेमाणा चिट्टामो तएणं से कण्हे वासुदेवे तेसिं पंचण्हं पांडवाणं एयम, सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते जाव तिवालयं एवं वयासी-अहो णं जया मए लवणसमुदं दुवे जोयणसयसहस्सा विच्छिण्णं वोइवइत्ता पउमणाभं हयमहिय जाव पडिसेहित्ताअमरकंका संभग्गन्दोवई साहत्थिं उवणीया तया णं तुन्भेहिं मम महप्पं ण विण्णायं इयाणि जाणिस्सहत्तिकट्टु लोहदंडं परामुसइ, पंचण्हं पंडवाणं रहे चूरेइ चूरित्ता णिव्विसए आणवेइ आणवित्ता तत्थ णं रह मद्दणे णामं कोड्डे णिविटे, तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सएणं खंधावारेणं सद्धिं अभिसमन्नागए यावि होत्था, तएणं से कण्हे वासुदेवेजेणेव बारवई णयरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अणुपविसइ ॥सू०३१॥ ____टीका-'तएणं से इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु स कृष्णो वासुदेवो लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन व्यतित्रजति-गच्छति व्यतिव्रज्य तान् पञ्च पाण्डवान् एव. मवादीत-गच्छत खलु यूयं हे देवानुपियाः ! गङ्गामहानदीमुत्तरत्त-उतीर्णा भवत, तएणं से कण्हे वासुदेवे इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से कण्हे वासुदेवे) उन कृष्णवासुदेवने (लवगसमुई) जब लवण समुद्र में (माझं मझेणं वीइवयइ ) वीच से होकर वे चले जा रहे थे। (ते पंच पंडवे एवं वयासी ) तब पांच पांडवों से ऐसा कहा-(गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया! गंगामहानइं उत्तरह जाव तपणं से कण्णे वासुदेवे इत्यादि Astथ-(तएण) त्या२५७। (से कण्हे वासुोने) ते वासुदेवे (लवणसमुई। , न्यारे तो सपथ समुद्रनी ( मज्झ मज्झेणं वीइवयह ) १२ये ५४ने पसार यता उता त्यारे (ते पंच पंडवे एवं वयासी) पांच पांडवान मा प्रमाणे ४छु (गच्छहणं तुन्भे देवाणुपिया! गंगा महानदि उत्तरह जाव ताव अहसुद्रिय For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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