SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 429
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हाताधर्मकथागसूत्रे आलोए पणाम करेइ २ त्ता, लोमहत्थयं परामुसइ २ ता, एवं जहा भूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियव्वं जाव धूवं डहइ ' त्ति । तेन मूलपाठस्य निश्चयस्तस्य नाभूदिति विज्ञायते ।। अतः परं च-वामं जाणुं अंचेइ दाहिणं जाणुं धरणियलंसि णिवेसेइ २' इति प्रतिमापूजकैः स्वीकृतो मूलपाठस्तत्र वर्तते, टीकाकारस्तु-'दाहिणं जाणुं धरणीतलंसि निह? ' इति पाठं टीकायां विलिख्य निगदति-'निहटु' निहत्य स्थापयित्वेत्यर्थः, णिवेसेइ ' इत्यत्र-'निहट्टु ' इति पाठभेदः कृतः। तेना. प्येतद् विदितं भवति-यस्य यादृशं मनस्यभिरुचितं स तादृशमिह मूलपाठं प्रक. ल्पयति स्म इति । जिणघरं अणुपविसह जिणपडिमाणं आलोए पगामं करेइ, २ लोमहत्वयं परामुसइ, २ एवं जहानूरियाभो जिनपडिमाओ अच्चेह तहेव भाणियव्वं जाव धूवं डहइ"त्ति यह पाठ मिलता है। इसके बाद " वामं जाणुं धरणियलंसि णिवेसेइ २" ऐसा पाठ मिलता है और यही पाठ प्रतिमा पूजकों को संमत है । परन्तु टीकाकार श्री अभयसूरि ने " दाहिणं जाणुं धरणीतलंसी निहटूटु' ऐसा पाठ टीकामें रखकर 'निहट्ट' इस पद की टीका " स्थापना करके " ऐसी की है। इस प्रकार " णिवेले" की जगह 'निहटूटु' ऐसा पाठ भेद किया गया है। इसी प्रकार प्रतिमा पूजकों द्वारा स्वीकृत “तिक्खुत्तो मुद्धाण धरणियलंसि नमेइ" इस मूल पाठ में भी परिवर्तन “नमेइ" क्रिया पद में “निवेशयति" इस रूप से कर दिया है। इससे यह बात निश्चित होती है कि जिस के मन पणामं करेइ, २ लोमहत्थयं परामुखइ, २ एवं जहा सूरियाभो जिनपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियव्व जाव धूव डहइ ) त्ति, मा ५४ भजे छ त्या२५छ। “वामं जाणु धरणियल सि णिवेसेड २” આ જાતનો પાઠ મળે છે અને એ જ પાઠ પ્રતિમા પૂજાના તરફદારીઓને માટે सभत ३५ छ. ५५ १२श्री मलयवसूरिये “ दाहिण जाणु धरणीतलसी निहट" या तनी ५४ मां री “ निहल” मा पनी 11स्थापना ४शन २प्रभारी छ. मा शत “णि वेसेइ " नस्थान " निहटु " म जतन 48 ४२वामा माव्य। छे. प्रतिमा पूजना त२३वारीमा १३ स्वीकृत (तिक्खुत्तो मुद्धाण धरणीतल सि नमेइ ) मा भूगमा ५ "नमेइ" यापम “निवेशयति " 21 जतनु परि. વર્તન કરી નાખ્યું છે. આથી આ વાતની ખાત્રી થાય છે કે જેના મનમાં જે પાઠ ગમે તેણે તે પ્રમાણે જ ફાવે તેમ પિતાની કલ્પનાથી મૂળ પાઠમાં For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy