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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ફો शीताधर्मकथासूत्रे , बाहयचेष्टाविशेषाः, तैः संमिश्र = संयुक्तं मैत्र्यादिभावानां निःश्रेयसाभ्युदयधर्ममूलत्वेन शास्त्रान्तरेषु प्रतिपादनात् । तदेवंविधमनुष्ठानं धर्म इति कीर्त्यते शब्द्यते सुधीभिरिति । , नन्वेवं वचनानुष्ठानं धर्म इति प्राप्तं तथा च प्रीतिभक्त्यसङ्गानुष्ठानेष्वव्याप्तिरिति चेन्न - इह तु वचनादित्यत्र वेदात् प्रवृत्तिरित्यत्रेव प्रयोज्यत्वार्थिका धर्म का अस्तित्व जाना जाता है अन्य सिद्धान्तकारों ने भी इन्हें निः श्रेयस और स्वर्ग के कारणभूत धर्म का मूल कहा है । अतः जो आगम से अविरुद्ध है, काल आदि की आराधना के अनुसार जो आराधित होता है और जो मैत्री आदि चार : भावनाओं से गर्भित है ऐसा अनुष्ठान ही धर्म है । ऐसे ही धर्म की आराधना करने का गणधर आदि का आदेश है । च भावार्थ - तीर्थंकर कथित आगम के अनुसार होने वाले अनुष्ठान का नाम धर्म है। इसका फलितार्थ यही है कि जिस अनुष्ठान में तीर्थंकर प्रभु द्वारा कथित आगम से विरोध नहीं आता है वही धर्म है । तथा - प्रीति भक्ति और असंग रूप अनुष्ठानों में इस लक्षण की अप्राप्ति नहीं होती है क्योंकि वहां पर भी इस लक्षण का सद्भाव पाया जाता है " वाचनानुष्टानं धर्मः " इस प्रकार के कथन में " वेदात् प्रवृत्तिः " की तरह प्रयोज्य अर्थ में पंचमी विभक्ति हुई है अतः जिस प्रवृत्ति का प्रयोज्य वचन है वह धर्म है । ( वचनानुष्ठानं धर्मः ) यहां से लेकर ( प्रीति भक्ति असंगानुष्ठान इत्यादि तक ) लिखने की आवश्यकता જાણવામાં આવે છે. ખીજા સિદ્ધાંતકારાએ પણ આ બધાંને નિઃશ્રેયસ અને સ્વર્ગના કારણભૂત ધમ'નું મૂળ બતાવ્યું છે. એથી જે આગમથી વિરુદ્ધ છે કાળ વગેરેની આરાધના મુજમ જે આરાધિત હાય છે અને જે મૈત્રી વગેરે ચાર ભાવનાઓથી યુક્ત છે એવું અનુષ્ઠાન જ ધમ છે. એવા જ ધર્મની આરાધના કરવા માટે ગણધર વગેરેના આદેશ છે. ભાવાર્થ:—તીર્થંકર કથિત આગમમુજબ આચરાયેલા અનુષ્ઠાનનુ નામ ધર્મ છે. એના અથ આ પ્રમાણે ફલિત થયા છે કે જે અનુષ્ઠાનમાં તીર્થંકર પ્રભુ વડે કથિત આગમથી વિરાધ જણાતા નથી તે જ ધર્મ છે, તેમજ પ્રીતિ, ભક્તિ અને અસંગ રૂપ અનુષ્ઠાનામાં આ લક્ષણુની અપ્રાપ્તિ પણ હાતી નથી કેમકે ત્યાં પણ આ લક્ષણને સદ્ભાવ મળે છે. “ वाचनानुष्ठान' धर्मः " म लतना अथनभां " वेदात प्रवृत्तिः "नी प्रेम प्रयोन्य अर्थमा पयभी विलति था छे, पेटला भाटे ने अवृत्तिनु प्रयोन्य पयन छे ते धर्म छे. ( वचनानुष्ठान' धर्मः ) अडींथी भांडीने प्रीति भक्ति असंगानुष्ठान वगेरे सुधी समवानी For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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