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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mantrannaणी टी० अ० १६ द्रौपदी चर्चा वस्त्राणि परिधाय ' जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ ' जिनप्रतिमानां, कामदेव प्रतिमानindi करोति विवाहविधि निर्विघ्न संपन्नार्थ मिति भाव: ' करिता ' कृत्वा ' जेणेव अंते अरे तेणेव उवागच्छड ' यत्रैवान्तःपुरं तत्रैवो- पागच्छति ॥सू०२१॥ द्रौपदीचर्चा 1 यत्तु - " जिणपडिमाणं अणं करे " इति पाठं समाश्रित्य भगवतोऽर्हतः पूजन जैनधर्मानुयायिभिः कर्तव्यमित्याहुस्तन्मिथ्यात्वविलसितम् अस्य पाठस्य चरितानुवादरूपत्वेन विधायकत्वासम्भवात् । विधिवाक्यं हि जिनाज्ञाया बोधक स्वेन विधायकं भवति, यथा- भगवता विधेयतयोपदिष्टं षड्विधावश्यकं चतुर्विधजिन प्रतिमा का कामदेव की प्रतिमा का निर्विघ्न विवाहकार्य के लिये अर्चन करती है अर्चन कर के फिर वह ( जेणेव अंते उरे तेणेव उषागच्छइ ) जहाँ अतःपुर था वहां चली गई । सू० २१ ॥ द्रौपदी चर्चा मापूजन जो "जिणपडिमाणं अक्षण करेह" इस पाठका आश्रय लेकर प्रतिकी उपयोगिता कहते हुए यह कहते हैं, कि " अर्हत भगवान की प्रतिमा की पूजा जैनधर्म के पालकों को करना चाहिये" यह उनका कथन मिथ्यात्व का विलास ही है। क्यों कि यह " जिनपरिमाणं " इत्यादि वाक्य चरित का ही अनुवादक है अतः ऐसे वाक्य किसी मुख्य अर्थ के विधायक नहीं हुआ करते हैं । चारितानुवाद से तो सिर्फ जिस व्यक्ति ने जो २ आचरण किया है उसका ही बोध होता है। शास्त्र विहित मार्गके निर्देशक विधिवाक्य हुआ करते हैं क्यों कि कि ऐसे वाक्य जिन भगवान की आज्ञाके विधायक होते हैं। जिस प्रकार षट् પ્રતિમાનું કામદેવની પ્રતિમાનું નિવિધ્ન વિવાહકાય સ્ર ́પન્ન થવાના હેતુથી मर्थन पुरे छे, अर्यन पुरीने ( जेणेव अतेउरे तेणेव उवागच्छइ ) જ્યાં રણવાસ છે તે તરફ જતી રહી. !! સૂત્ર ૨૧ ૫ દ્રૌપદી ચર્ચા પ્રમાણે કહે કરનારાઓએ ,, डेंटला " जिण डिमाणं अच्चणं करेइ" मा પાઠના આધારે પ્રતિમા પૂજનની ઉપયેાગિતા સિદ્ધ કરતાં આ છે કે “ અંત ભગવાનની પ્રતિમાનું પૂજન જૈનધમ પાલન કરવું જોઈએ ” તેમનું આ કથન સત્યથી ખહુ દૂર છે એટલે કે આ વાત સાવ અસત્યથી પૂર્ણ છે. કેમકે આ " जिनपडिमाणं ” वगेरें वाध्य यस्तिना ४ अनुवाद छे भेटला भाटे એવાં વચન કઈ વિશેષ અને સ્પષ્ટ કરનારાં હાતા નથી. ચિરતાનુવાદથી તે ફક્ત જે માસે જે તે આચરણ કર્યું છે, ફક્ત તેનું જ જ્ઞાન થાય તેમ છે, શાઅવિહિત ભાગને ખતાવનારા તે વિધિ વાચે જ થાય છે. જેવી રીતે ३८ For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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