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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २६३ स्नातः यावत्-सर्वालङ्कारविभूषितशरीरश्चतुर्घण्टमश्वरथं · दुरुहइ' दरोहति-आरोइति । दुरुह्य बहुभिः पुरुषैः कीदृशैः पुरुषैरित्याह-' सन्नद्ध जाव गहिया ' इति अत्र यावच्छब्देनैवं बोध्यम्-सभदबद्धवम्मियकवएहि, उप्पीलियसरासनपट्टगेहिं, पिणद्धगेविज्जगबद्धाविद्धविमलचरचिन्धपहि, गहियाऽऽउहपरणेहि इति । समद्धबद्धवर्मितकवचैः उत्पीड़ितशरासनपट्टकैः, पिनद्धौवेयकबद्धबिद्धविमलवरचित पट्टैः गृहीतायुधप्रहरणैः, सन्नद्धाः सज्जीकुताः, बद्धाः कशाबन्धनेन संबद्धा, वर्मिताः अङ्ग परिहिताः कवचा यै स्ते सन्नद्धबद्धवर्मितकवचास्तैः, तथा-उत्पीड़ितशरासनपट्टकैः उत्पीडितानि-गुणारोपणेन वक्रीकृतानि शरासनपट्टकानि धनुः प्रकाण्डानि यैस्ते उत्पीडितशरासनपट्टकाः रज्ज्वारोपणवक्रीकृतधनुर्धारिणम्तैः, वह जहां अपना घर था वहां आया। वहां आकर उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर उनसे ऐसा कहा हे देवानुप्रियों! तुम लोग शीघ्र ही चार घंटों से युक्त अश्वरथ को घोड़े जोतकर यहां ले आओ। उन्होंने आज्ञानुसार ऐसा ही किया। वे चार घंटा वाले उस रथ में घोड़े जोतकर उसे वहां ले आये (तएणं से दूए पहाए जाव अलंकार सरीरे चाउरचंट आसरहदुरुहइ, दुरुहित्ता बहहिं पुरिसेहिं सन्नाद जाव गहियाऽऽउहपहरणेहिं मद्धिं : संपग्लुिडे कंपिल्लपुरनयरं माझं मज्झे गं निग्गच्छइ ) इस के बाद दूतने स्नान किया, यावत् अपने शरीर को समस्त अलंकारों से विभूषित किया। बाद में वह उस चतुर्घट वाले अश्वरथ पर सवार हो गया। उस के साथ सजाकर अपने शरीर पर कवच पहिर रखा है ऐसा अनेक पुरुष थे ज्यापर योग को आरोपित करने से वक्री भूत हुआ धनुष जिनके हाथों में हैं ऐसे अनेक धनुर्धारी પિતાનું ઘર હતું ત્યાં આવ્યું. ત્યાં આવીને તેણે કૌટુંબિક પુરુષને બતાવ્યા અને બોલાવીને તેમને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! તમે સત્વરે ચાર ઘંટડીઓવાળો અશ્વરથ તરીને અહીં આવે, કૌટુંબિક પુરૂષએ તેમજ કર્યું. ચાર ઘંટડીभोपा तारीने त्यi as माव्या. (तएण से दूए हाए जाव अलंकार० सरीरे चाउग्घट आसरह दुरुहइ, दुरुहित्ता बहूहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाऽऽउहपहरणे हिं सिद्धिं संपरिखुडे कंपिल्लपुरनयर मज्झं मझेण' निग्गच्छइ ) त्या२६ ते २ान ४थु यावत् पाताना शरीरने ५धी andal અલંકારોથી શણગાર્યું. ત્યારપછી તે દૂત ચતુર્ઘટવાળા અશ્વરથ ઉપર સવાર થઈ ગયો. તે દૂતની સાથે બખતરથી સુસજજ થયેલા ઘણા પુરૂ હતા. પ્રત્યંચા ઉપર બાણું ચઢાવવાથી વક્ર થઈ ગયેલા ધનુષ જેમના હાથમાં છે For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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