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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 6 Re ताधर्मकथासूत्रे 1 , निर्ग्रन्ध्यः ईर्यासविताः = ईर्यासमितियुक्ताः, यावद् - गुप्तब्रह्मचारिण्यः स्मः, तस्माद् नो खलु अस्माकं कल्पते-' बहिया ' वहि: - ग्रामाद् यावद् संनिवेशाद् षष्ठ पष्ठेन 'जाव विहरित ' यावद् विहर्तुम् ग्रामादे बहिः प्रदेशे साध्वीनां स्थितिः शीलभङ्गादिकारणं भवतीति भावः । किंतु कल्पते खलु अस्माकम् 'अंतो ' अन्तः=अभ्यन्तरे ‘ उवस्सयस्स उपाश्रयस्य = वसतेः किम्भूतस्य ' वितिपरिक्खित्तस्स ' वृविपरिक्षिप्तस्य = भित्यादिना सर्वतः समाहृतस्य, 'संघाडिवद्धियाए ' संङ्घाटिका प्रतिवद्धायाः=मतिवद्धशाटिकायाः सर्ववाऽनुद्घाटितगात्राया इत्यर्थः समतलपइयाए' समतलपदिकाया: = भूमौ समतलत्या स्थापितचरणयुगलाया आयावित्तए ' आतापयितुम् = आतापनां कर्त्तुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । ततः अज्जे ! समणी ओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव गुत्तरंभचारिणीओ, नो खलु अम्हं कप्पइ बहियागामस्स जाव सण्णिवेसस्स वा छटुंο जाव विहरितए) इस प्रकार सुकुमारिका साध्वी का कथन सुनकर गोपालिका आर्या ने उस सुकुमारि का आर्या से इस प्रकार कहा है आयें ! हम लोग निर्ग्रन्थ श्रमणियां हैं । ईर्या आदि समितियों का पालन करती हैं । और नौ कोटि से ब्रह्मचर्य की रक्षा करती हैं । इसलिये हम लोगों को ग्राम से यावत् सन्निवेश से बाहिर रह कर षष्ठ षष्ठ की तपस्या करना यावत् सूर्याभिमुखी होकर आतापन योग धारण करना कल्पित नहीं है । कारण - ग्रामादि के बाहिरी प्रदेश में साध्वियों का रहना शीलभंग आदि का निमित्त बन जाता है । (कप्पड़ णं अम्हंअंतो उवस्सस्स विज्ञपरिक्खित्तस्स संघाडिवद्वियाए णं समतल पड़- - याए आयात्तिए) हमें तो यही कल्पित है कि हम लोग उपाश्रय के एवं वयासी - अम्हेणं अज्जे ! समणीओ निग्गंथीओईरिया सामियाओ जान गुत्तबंभवारिणीओ, नो खलु अम्ह कप्पइ बहिया गामरस जाव सण्णिवेसल्स वा छुट्टेο जाव विहरित्तर ) मा रीते सुकुमारि साध्वीनं अथन सांलजीने गोपासि આર્યોએ સુકુમારિકા આર્યાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે આવે ! આપણે નિથ શ્રમણીએ છીએ. ઇર્યો વગેરે સમિતિઓનું પાલન કરીએ છીએ, અને નવકેટિથી બ્રહ્મચર્ય નું રક્ષણ કરીએ છીએ. એથી આપણે ગામથી યાવત્ સન્નિવેશથી બહાર રહીને ષષ્ઠ ષષ્ઠની તપસ્યા કરવી યાવતું સૂર્યાભિમુખી થઇને આતપન ચેાગ ધારણ કરવા કલ્પિત નથી. કારણ કે-ગામ વગેરેથી બહારના પ્રદે शमां साध्वी रहेनु' शीसलग विगेरेनुं निमित्त थर्ड लय छे. (कप्पइ णं अम्' अंतो उवत्स्यस्स विइपरिक्वित्तस्स संघाडिव दियाए णं समतलपइयाए आया वित्तए) आपने तो मे ४ उस्थित छे में यापये भींत वगेरेथी यामेर Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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