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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ. ३. जिनदत्त-सागरदत्त चरित्रम् वेति निज कर्णान्ति के नीत्वा टिटि-इति शब्दं कारयति । ततस्तदनंतरं खलु तन्मयूर्या अड़कम भीक्ष्ण भीक्ष्णमुद्रलु मानं यावच्छन्दायमानं क्रियमाणं सत् 'पोच्चडे' पोचडं निःसारं पोतोत्पादनशक्तिरहितमित्यर्थः 'जाए' जातं चा. सीत् । ततस्तदनन्तरं खलु स मागरदत्तपुत्रः सार्थवाहदारकः 'अन्नया कयाई' अन्यदा कदाचित एकदा 'जेणेव' यत्रैव 'से' तन्मयर्या अंक 'तेणेव' तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तन्मयूर्या अण्ड के 'पोच्चड़मेव' निर्जीवमेव 'पासई' पश्यति, दृष्ट्वा चेत्यचिन्तयत्. 'अहो' इति खेदे 'ण' अल कृतौ 'मम' मम 'एस किलावणए' एप क्रीडनकः क्रीडाकरणाथ मयूरीपोतकः, मयूर्याः शिशु न जात इति कृत्वा 'ओहयमण' अपहतमनाः-निराशचित्तः, यावत् 'झियायई' ध्यायति-आर्तध्यानं करोतीत्यर्थः।। तथा बार २ अपने कर्ण के पास ले जाकर टि टि इस प्रकार से शब्द को करवाया (तएण से मऊरी अंडए अभिक्खण २ उबत्तिजमाणे जाब टिट्टयावेजमाणे पोचडे जाए यावि होत्था) इस तरह वह मयूरी अंडक बार बार उदितित यावत् शब्दायमान क्रियमाण होता हुआ निःसार बन गया-पोतोत्पादन शक्ति से रहित हो गया। (तरण से से सागरदत्तपुत्तो सत्यवाहदारए अन्न या कथाई जेणेव से मऊरी अडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं मऊराअंडयं पोच्चडमेव पासइ) कुछ दिनों के बाद वह सार्थवाह दारक सागरदत्त पुत्र जहां वह मयूरो का अंडा रखा हुआ था। वहां गया-जाकर उसने उस मयी अंडक को निर्जीव देखा (पासित्ता अहोणं मम एस किलावणए मऊरी पोयए ण जाए त्तिक ओहयमण जाव झियायइ) देखकर उसे दुःख हुआ-उसने सोचा-मेरे लिये यह क्रीडा करने के योग्य मयूरो पोतकनिष्पन्न नहीं દીધું, અને ઈડાને વારંવાર પિતાના કાનની પાસે લઈ જઈને “ટિ ટિ’ આમ શબ્દ २।१७।०यो. (तएणं से मऊ अंडए अभिक्खग२ उच्चतिजमाणे जाव टिट्टिया वेजमाणे पोचडे जाए याचि होत्था) २ रीते पार वार साववाथी पसेउवाथी તેમ જ તેને શબ્દ યુકત બનાવવાથી તે ઢેલનું ઈંડું નિસાર થઈ ગયું. બચ્ચાને उत्पन्न ४२वानी तथा राहत मनी आयु (तएण से सागरदत्तपुत्ते सत्यवाहदारए अन्नया कयाइं जेणेव से मऊती अंडए तेणेत्र उवागच्छइ, उपगच्छित्ता तं मऊरीअंडयं पोच्चडमेव पासइ) ३४ा ६ि१स पछी सायपाड सा२हत्तने। તે પુત્ર હેલના ઈંડાની પાસે ગયે. અને ત્યાં તેણે ઢેલના ઈંડાને નિજીવ જોયું. (पासित्ता अहो णं मम एस किलावणए मऊरीपोयए ण जाए तिकटु ओहयमण जाव झियायइ) ने तेने भूम हु थयु, भनभ ते विचार વા લાગે મારી ક્રીડા માટે આ ઢેલનું ઈંડું નિષ્પન્ન થયું નથી આ રીતે વિચાર For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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