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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ. ३ जिनदत्त-सागरदत्तचरित्रम् _______६८३ पुष्पगन्ध वसंगृहीत्वा देवदत्तया गणिकया सार्द्ध सुभूमिभागस्योद्यानस्य उद्यानश्रियम्--उद्यानशोभोम् प्रत्यनुभवतोः-उपवनशोभादर्शनादिना प्रमोदयतोः विहर्तु-विलासितुम् इति कृत्वा अन्योऽन्ययोरेतमर्थ प्रतिश्रुणुतः पतिश्रुत्य निश्चित्येत्यर्थः 'कलं' कल्ये 'पाउप्पभाया रयणोए'प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां राज्यन्ते प्राच्यां दिशि प्रकाशोदये कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयतः शब्दयित्वा एवमवादिष्टाम् गच्छत खलु यूयं देवानुपियाः ! विपुलमशन(तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया) हे देवानुपिय ! हम दोनोंका अब यह अच्छा है कि (कल्लं जाव जलते विउलं असणं उवक्खडावित्ता तं विउलं असग४ धवपुप्फगधवत्थं गहाय देवदत्ताए गणियाए सद्धि मुभूमिभागस्स उजाणस्स उज्जोणसिरि पच्चणुभवमाणाण विहरित्तए) हम दोनों कल जब कि प्रभात हो जाय और सूर्य प्रकाश हो जाय तब विपुलमात्रामें अशन पान, खाद्य, और स्वाय चारों प्रकार का आहार निष्पन्न करा कर उस निष्पन्न हुए अशन आ.ि४ चारों प्रकार के आहारको तथा धूप, पुष्प, गंध, और वस्त्र को लेकर देवदत्त गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान की उद्यान श्री का अनुभव करते हुए विचरण करें। (त्तिाई अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिसुणेति) ऐसा विचार उन दोनोंने किया परस्पर के इस विचारको स्वीकार कर लिया (पडिसुणित्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेंति) विचार स्वीकृत हो चुकने के बाद कल जब रात्रि प्रभात प्राय हो चुकी और मूर्य प्रकाशित हो चुका तब उन दोनोंने अपने२ कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया (सदाविता एवं (तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया) हेवानुप्रिये ! भापणे माने भाटे ये वात सुम३५ थथे 3 (कल्लं जावजलते विउलं असण ४ उवक्खडावेत्ता तं विउल असण४ धूव,पुप्फ,गंधवत्थ गहाय देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाण सिरिं पच्चणुभवमाणाणं विहरित्तए) सावता आले न्यारे સવાર થાય અને સૂર્ય પ્રકાશત થાય ત્યારે પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદ્ય, અને સ્વાદ્ય ચારે પ્રકારને આહાર બનાવડાવીને તે ચારે જાતના આહારને તેમજ ધૂપ, પુષ, ગંધ અને વસ્ત્રને લઈને દેવદત્તા ગણિકાની સાથે સુભૂમિ ભાગ ઉદ્યાનની Gधानश्रीन मनुमक्ता विडा२ शये. (त्तिक? अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिमुणेति) आ वियाग्ने मानेमे स्वीधारी बीघा. (पडिमुणित्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए कोडुबिय पुरिसे स वेंति) वियानी स्वीकृति माह न्यारे रात्रि पसार २४ પ્રભાત થયું અને સૂરજને પ્રકાશ રોમેર પ્રસર્યો ત્યારે બંનેએ પિતાપિતાના કૌટુંબિક ५३षोन मासाव्या. (सदावित्ता एवं वयासी) मारावीन. (गच्छह णं देवा. For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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