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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका सू ४ प्रश्नादिनिरूपणम् सव्वभूमियासु लद्धपच्चए विइष्णवियारे रजधुरचिंतए यावि होत्था, सेणियस्स रन्नो रजं च रहं च कोसं च कोट्टागारं बलं च वाहणं च पुरंच अंतेउरंच सयमेव समुवेक्खमाणे समुवेक्खमाणे विहरइासू, ४ । टीका- 'जइणं भंते !" इत्यादि । जम्बूस्वामी भगवन्तमार्य सुधर्मस्वामिनं पृच्छति - यदि खलु भगवन् ! श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन ज्ञातानां ज्ञाताख्यस्य प्रथमश्रुतस्कन्धस्यैकोनविंशतिरध्ययनानि-मज्ञप्तानि तद्यथा - उत्क्षिप्तज्ञातादीनि यावत् = पुण्डरीकज्ञातान्तानि च एतेषु प्रथमस्य खलु भगवन् ! अध्ययनस्य = उत्क्षिप्तज्ञाताख्यस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? । इति प्रश्ने कृते सति - आर्यसुधर्मास्वामी प्राहएवम् = अमुना प्रकारेण खलु = निश्चयेन हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन समये इहैव = निवासाधारतया प्रत्यक्षाऽऽसन्ने न तु जम्बूद्वीपानामसङ्ख्यतया य * जहणं भंते ! समणेणं जाव इत्यादि जंबूस्वामी - आर्य सुधर्मास्वामी से पुनः यह पूछते हैं कि (जाब संपत्ते समणेणं) आदि करआदि विशेषणों से लेकर - सिद्धिगति को प्राप्त । हुए विशेषणों वाले श्रमण भगवान महावीरने (नायाणं एगूणवीसा अज्झगणा पण्णत्ता) ज्ञाता नामक - प्रथम श्रुतस्कंध के ये १९ उन्नीस अध्ययन कहे हैं ( तं जहा ) जैसे ( उक्खित्तणाए जान पुंडरी एत्तिय) उत्क्षिप्तज्ञात से लगाकरपुडरीकज्ञात तक। तो इनमें (पढमस्स णं भंते । अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते) प्रथम अध्ययन जो उत्क्षिप्तज्ञात है उसका क्या अर्थ उन्होंने प्रतिपादित किया है। इसप्रकार जंबूस्वामी का वक्तव्य सुनकर श्री सुधर्मास्वामी उत्तर रूप में यह कहते हैं कि - ( एवं खलु जंबू ! तेगं कालेणं तेणंसमएणं इहेव "जंबूणं भंते! समणेणं जाव इत्यादि" जूस्वामी आर्य सुधर्भास्वामीने इरी या प्रमाणे पूछे छे (जाव संपत्तेणं समणेणं) આદિકર આદિ વિશેષણાથી લઈ ને સિદ્ધિગતિને પ્રાપ્ત કરેલ વિશેષણાવાળા શ્રમણુ भगवान् भडावीरे ( णायाणं एगूणवीसा अज्झयणा पण्णत्ता) ज्ञाता नाभना प्रथम श्रुतस्पृधना मे भोगलीस (१८) अध्ययना म्ह्यां छे. (तं जहा) प्रेम (उक्खित्तणाए जाव पुंडरीएत्तिय ) उत्क्षिप्तज्ञातथी सर्धने पुडे अज्ञात सुधी तो अमनाम (पसणं भंते ! अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते) प्रथम अध्ययन के ક્ષિપ્તજ્ઞાત છે, તેને શે। અર્થ તેઓએ બતાવ્યો છે? આ રીતે જ ખૂસ્વામીના पथनो सांलणीने श्री सुधर्मास्वामी उत्तरमा मा प्रमाणे उडे छे हैं - ( एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं जंबू दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्ढे भर हे For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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