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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ २ . १०धन्यस्य विजयेन सहह डिबन्धनादिकम् ६३७ स्थापयति, स्थापयित्वा 'उल्ल छेड़" भोजनपिटक उल्लाञ्छयति= निर्वाञ्छितं करोति = उद्घाटयतीत्यर्थः, उल्लाञ्छय 'भाषणाणि भाजनानि= स्थाली कटोरकादीनि गृह्णाति, गृहीत्वा भाजनानि 'धोवेड' धावति = प्रक्षालयति, घावयित्वा = पात्रपक्षालनानन्तरं 'हत्थमोयं दलय हस्तशौचं ददाति, श्रेष्ठ हस्तौ धात्रयति, हस्तशौचानन्तरं धन्य नाहं तेन विपुलेनअशन-पान खाद्यस्त्राद्येन ' परिवेस' परिवेषयति = श्रेष्ठिनो भोजनपात्रेऽशनादीनि निघातीत्यर्थः 'तएणं' तदाखलु = श्रेष्ठ भोजनसमये स विजयस्तस्करी धन्यं सार्थवाहमेवमवादीत् स्वं खलु देवानुप्रिय ! मम एतस्माद् विपुलाद् अशन - पान - खाद्य - स्वाद्यात् संविभागं कुरु । ततः खलु म धन्यः सार्थवाहस्तस्य वाक्यं श्रुत्वा विजयं तस्करमेवमवादीत् अपि 'आई' वाक्य पिडगं ठवे ) जाकर उसने उस भोजन के डिब्बेको वहां रख दिया । (fear उल्लछे) रखकर फिर उसने उस डिब्बेको खोला ( उल्लंछिता भायगा गेहइ गेहिता भायणाई धोवेह घोविना हत्थसोयं दलयइ) खोलकर उसने थाली - कटोरी आदि को उठाया उठा कर उन्हें धोया, (दलवित्ता घण्णं स त्यवाहं तेगं असणं४ परिवेसइ) धुलाकर उस सेठ धन्य सार्थवाह के लिये वह विविध आहार परोसा (तएण से विजए तक्करे घण्णं सत्थवाहं एवं वयासी) इसी बीच में उस विनय चौरने धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा(तुमणं देवाणुपिया मम एयाओ विउलाओ असणं४ संविभागं करेहि) हे प्रिय ! तुम इस अशन, पान खाद्य, एवं स्वाद्यरूप चार प्रकार के आहार में से विभाग करो (तएगं से धन्ने मत्थवाहेविनयं तक्करं एवं वयासी) विजय चौर की इस प्रकार बात सुनकर धन्य सार्थवाहने उस विजय चौर पिड़ग वेट) नेत्यां पोथीने लोन्नना उमाने तेथे त्यां भूडी हीधी. (ठविता इल्लल्लेड) त्यां भूडीने तेथे डो उघाडयो. (उल्लं छित्ता भायणाइ गेण्ड गे हत्ता भागणाई घोडघोषित्ता हृत्थसोयं दलवई) उघाडीने तेथे याणी अने વાડકીને લીધી અને લઈને પાણીથી ધાઇ. ત્યાર બાદ તેણે શેઠના અને હાથધાવ डाव्या. (दलवित्ता घण्णं सत्यवाहं तेगं विलेणं असणं ४ परिवेसइ) धावडावीने तेथे धन्यसार्थबाहुने भाटे विविध भतना महारे। पीरस्था. (तएण से विजयraकरे धणं सत्यंवाहं वयासी) मे ४ वमते ते विन्य थोरै धन्यसार्थहने या प्रमाणे धु-- (तुमण्णं देवाणुपिया मम एवाओ farera असणं ४ संविभागं करेहि) हे देवानु प्रिय ! तभे या अशन, पान खाद्य अने स्वद्य आहारमाथी भाशयाशु हिस्सा ई. (नए से धन्ने सात्थबाहे विजयं तक्करं एवं वयासी) विश्य योनी या लतनी વાત સાંભળીને For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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