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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३४ साताधर्मकथाङ्गमत्र टोका-तए णं से इत्यादि । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहोऽन्यदा कदाचित्-एकस्मिन् कस्मिंश्चित्समये 'लहूससि रायावराहसि' लधुस्वके राजापराधे-स्तोके राजकगप्रदानरूपे भूपापगधे मति केनाऽपि पिशुनेन भूपाय 'संपलत्ते' संपलपितः अपराधित्वेन कथितो जातश्चाप्यासीत् । ततः खलु-पैशुन्यप्रलपनानन्तरं ते नगरगोप्नका धन्यं सार्थवाहं गृह्णन्ति, गृहीत्वा यौत्र चारकः कारागारस्तत्रोपागच्छन्ति उपागत्य चारकमनुप्रवेशयन्ति. अनुप्रवेश्य विजयेन तम्करेण सार्द्धम 'एगयओ' एकता एकत्र तेन सहेव एकस्मिन् हडियो 'बेडी' इति भाषामसि द्धे हडिबन्धनं कुर्वन्ति । तत: खलु मा भद्रा भार्या कल्ये यावज्वलति-धन्यवेष्ठिनो इडियन्धनस्य द्वितीयदिवसे मूर्योदये सति विपुलं विस्तीर्ण सतिभोजनाईम अशनं पानं ग्वायं म्वाद्य-नानाविधमशनादिकम उवक्खडे' उपस्करोभिजीरकहिङ. तए णं से धणे सत्यवाहे इत्यादि । टीकार्थ--(तएण) इसके बाद (से धण्णे सत्यवाहे) वह धन्यसार्थवाह (अन्नया कयाई) किमी एक समय (लहूमयंसि गयावराहमि) टेक्स न देने के छोटे अपराध में (संलग्गे जाए यावि होत्या) राजा के पास किसी चुगल खोरने फमा हुआ कह दिया। (तएण ते नगरनुत्तिया घण्ण सत्यवाहं गेहति) इसके बाद नगरक्षकोंने उस धन्य सार्थवाह को पकड लिया। (गेहित्ता जेणेव चारगे तेणेव उवा छंति उवागच्छित्ता चारगं अणुपविसंति) पकड कर वे उसे जहांकारागार था वहां ले गये लेजाकर उन्होंने उसे कारागार में बन्द कर दिया । (अणुपविसिना विजएण तक्करेगं सद्धिं एग यओ हडिबंधणं कति) बन्द करके उसे जहां वह विनयचोर था वहीं उसीकी बेडी से बांध दिया। (तरण मा भदा भारिया कल्ल ___(त एणं से धण्णे सस्थाहे' इत्यादि ! Ast.--(तएणं) त्या२ पछी (से धणे सत्यवाहे) धन्यसार्थ वाई (अन्नया कयाई) 15 मे मते (लहमयंसि रायावराहमि) ४२ न सा५५ ३५ी नाना अ५राध ४९ (संपलते जाए यावि होत्या या यामे रानी पासे पडयाsी डीपी. (तणं ते नगरगुत्तिया धणं सस्थवाहं गेण्हति) त्यार माह न१२ २क्षाये धन्य सार्थवाहने ५४४ो. (गेहित्ता जेणेव चारगे तेणेव उबागच्छंति उवागच्छित्ता चारगं अणपविसंति) ५४ीन तेसो तेने समा गया मने तेभा पूरी सीधी. (अणुपविसित्ता विजएणं तक्करेणं सद्धिं एगयओ हडिबंधणं करेंति) न्यi विय नामे यार तो त्यां धन्यसा पाइने पए मेडीथी मांधीधा. (तपणं सा भदा For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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