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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ. १. ५० मेघमुनिगति निरूपणम् गुणरत्नसंवत्सरं तप: कर्म कायन स्पृष्ट्वा यावत्कीतयित्वा मया अभ्यनुज्ञातः सन् गौतमादीन स्थविरान् क्षामर्यात क्षामयित्वा तथारूपैर्यावद् विपुलं पर्वतं दुरोहति दुख्य दर्भसंस्तारकं सस्तरति संस्तीर्य संस्तारोपगतः स्वयमेव पञ्चमहाव्रतानि उच्चारयति, द्वादशवर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयित्वा मासिक्या अंतेवासी जो मेघकुमार नाम के अनगार थे कि जो प्रकृति से सरल यावत् facta थे तथा जिन्होंने तथा रूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगो का अध्ययन किया था । - - (अहिज्जित्ता वारस भिक्खुपडिमाओ गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं कारणं फासित्ता जात्र किट्टित्ता म अन्भन्नाए समाणे गोयमाई थेरे खामेइ ) और अध्ययन कर जिन्होंने उन्हें अच्छी तरह अधिगत कर १२ - भिक्षु प्रतिमाओं को तथा गुणरत्न रूप संवत्सर वाले तप कर्म को शरीर से स्पर्श कर शोधित कर उनमें पारंगत आदि होकर अच्छी तरह आराधित किया था। बाद में जिन्होंने मुझ से आज्ञा माप्त कर गौतमादिक निग्रंथ साधुओं आदि से अपने अपराधों की क्षमा याचना की थी ( खामित्ता तहारूवेहि थेरेहि सद्धिं जाविलं पव्त्रयं दुरूहई, दुरूहित्ता दव्भसंथारगं संथर संथरित्ता दम्भसंथारो गए सयमेत्र पंचमहव्वए उच्चारेइ ) खमत खामणा करके तथारूप कृतादि स्थविरों के साथ विपुल नाम के पर्वत पर चढे चढकर वहाँ जिन्होंने दर्भ संथारा बिछाया। उसे बिछाकर फिर जो उसपर સાંભળા હું કહું છું—અનગાર મેઘકુમાર નામના મારા અંતેવાસી કે જે પ્રકૃતિ સરળ યાવત્ વિનમ્ર હતા, અને જેમણે તથારૂપ સ્થવિરાની પાસે સામાયિક વગેરે अगियार मगोनो मल्यास अय-- ( अहिजित्ता बारस भिक्खुपडिमाओ गुणरयणसं वच्छरं तवोकम्म कारण फासित्ता जाव किट्टित्ता मए अन्भ जुन्नाए समाणे गोयमाई थेरेखामेइ ) भने अल्यास उरीने तेथे तेभने सारी પેઠે મેળવી ખાર ભિક્ષુ પ્રતિમાઓને તેમજ ગુણરત્ન રૂપ સવત્સરવાળા તપકને શીરથી સ્પીને શેષિત કરીને તેમાં પારગત વગેરે થઈ તે સારી રીતે આરાષિત ક્યું હતુ, ત્યાર બાદ જેમણે મારી આજ્ઞા મેળવીને ગૌતમ વગેરે નિગ્રંથ સાધુએ वगेरेथी पोताना अपराधोनी क्षभा भागी हुती. ( खामित्ता तहारूवेहिं थेरेहिं सद्धि जाविलं पव्त्रयं दुरूहई, दुरुहिता दव्भसंधारगं संथरइ संघरित्ता दव्भसंथारो गए सयमेव पंचमहन्नए उच्चारेइ ) अभत आभा उरीने તથા રૂપ કૃતાદિ સ્થવિરાની સાથે વિપુલ નામના પર્યંત ઉપર ચઢયા, ચઢીને તેમણે દ` સંથારક પાથર્યું. પાથરીને તેના ઉપર પૂર્વ દિશા તરફ માં કરીને પદ્માસનમાં For Private and Personal Use Only ८५७
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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