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अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ १३. ३४ मेघकुमारदीक्षोत्सर्वानरूपणम्
सीयं दुरुह दुरुहित्ता मेहस्स कुमारस्स पुव्वदक्खिणेणं सेयं ग्ययामयं विमलसलिलपुन्नं मत्तगयमहामु हाकिइसलाणं भिंगारं गहाय चिटुइ ॥ सू० ३४ ||
अथ शिविकादिकं वर्ण्यते
टीका- 'एग से' इत्यादि । ततः खलु स श्रेणिको राजा कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत् क्षिप्रमेव भो देवानुमियाः 'अणेगखंभ समसन्निवि' अनेक स्तम्भशत संनिविष्टा= नेकशतस्तम्भयुक्तां 'लिलट्ठियसालमंजियागं लीला स्थितशालभञ्जिकां - लीलास्थित शालभञ्जिकां लोलया स्थिता=सटील वर्तमाना शालभञ्जिका=पुतलिका यस्यां सा तथोक्ता तां 'ईहामिग उसभतुरगनर नगर
बहग वागकिन्नर - रुरु - सरभचमर- कुंजर - वणलय - पउमलयभत्तिचित्तं । ईहामृगामनुगतमकर- विहग-पालक - किन्नर - रुरुशरभ - चमर कुञ्जर वनलता. पद्मलता भक्तिचित्रां-तत्र ईहामृगोः, 'भेडिया इति भाषायां, ऋषभः =
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अग ममय सन्निहिं ) हे देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही अनेक - सैकडों स्तंभों से युक्त, ( लीलट्ठियसालभंजियागं ) लीलाकरती हुई पुतलियों से विराजित ( ईहामिगउ सभतुरयनर मगर विहगवालग किन्नर रुरूसरभचमर कुं जरवणलय मलयभक्तिचित्त ) ईहा मृग-भेडिया ऋषभ - वृषभ तुरग--अश्व मनुष्य, मकर -- ग्राह, विहग-पक्षी, व्यालक -- - सर्प किन्नर - व्यन्तर देव विशेष, रूरू- एक जातिका मृग विशेष, शरभअष्टापद. चमर - चमरी गाय, कुंजर हाथी, वनलता - एक शाखावाला वृक्ष
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हे हेवानुप्रय ! तमे सत्वरे से। थांलसाभोवाणी, ( लीलट्ठियसालभंजियागं ) |डा उश्ती यूतजीमोथी सुशोभित, ( ईहा मिग- उसम-तुरय--नर मगरविहग - बालग - किन्नर - रुरु सरभ - चमर- कुंजर - वगलय- पउमलय-भत्ति-चित्तं ) डिभृग, वरु, • मजह, घोडो, भाएणूस, भगर, पक्षी, साथ, डिन्नर (खेड व्यन्तर देवता विशेष ) रुरु ( मे! लतनो भृग विशेष ) शरल, ( भेउ आउ पग वाजु आणी विशेष ) यभर, (अमरी गाय), मुं४२, (हाथी) वनवता, (खेड शाखा