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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८३ अनगारधर्मामृतवर्षि टीका. अ १ सू २० मेघकुमारपालनादिनिरूपणम स्तूपिका = लघुशिखरम् उपरिभागो यस्य तत् तथा, 'णाणाचिपंचचन्न घंटापडागपरिमंडियग्गमिरं नानाविधपंचवटा ताकापरिमण्डिताम्रशिरस्कं=नानाविप्राभिः पंचवर्णाभिः घंटामधानपताकाभिः ध्वजाभिः परिमण्डितं शोभितम् अग्रशिरः शिखरोपरिभागो यस्य तत् 'धवल मरीइकवयं' विजिम्मुतं' धवलमरीचिकवचं विनिर्मुञ्चन्तं खटिकाद्युपलेपनछटाभिः प्रतिस्थल संलग्नस्फटिकरस्नप्रभाभिश्च जनितं श्वेतकिरणरूपं कवचं - कङ्कटं तत्समूहमित्यर्थः विनिर्मुश्चत्=चतुर्दिक्षु प्रसारयत् ' लाउल्लाय महियं' अलाबुल्लोकितमहितं अलाबू शब्दोऽत्रलता सामान्य वाचकः तेन नानावर्णकुसुमसुगन्ध सम्पन्नरमणीयलताभि उल्लोकितम् = उपरिभागे समाच्छादितम् अतएव महितं सुन्दरं यावद गंन्धवर्तिभूतं इह याव च्छदेन कालागुरुपत्र र कुन्दुरुष्कादि-सुगन्धवरगन्धितम् इतिबोध्यम्, गन्ध वर्तिभूतं = सुगन्धद्रव्यवर्तिकासदृशे सुगन्धातिशयवत्त्वादित्यर्थः । 'पासाईयं' प्रपासे चन्द्रकान्त सूर्यकान्त मणियों आदि से और कर्केतन आदि रत्नों इसकी लघु शिखर - ऊपर का भाग निर्मित था । ( णाणाविह पंचवन्न घंटापडागपरिमंडियग्गसिरं ) इम के शिरों के ऊपर का भाग अनेक प्रकार पंचवर्ण वाली घंटा प्रधान पताकाओ से शोभित किया था (धवलमरी:कवयं विणिम्यंत) खडिया मिट्टी के उपलेप की तथा प्रतिस्थल में संलग्न स्फटिकरत्न की कांति के समूहरू कवच को यह चारों दिशाओ में फैला रहा था। (लाउल्लोपमहियं) नाना वर्ण के कुसुम की सुगंधि से समवित अनेक विधवेलाओं से यह उपरितन भाग में आच्छादित हो रहा था। इसलिये बडा सुहावना लगता था । ( जात्र गंधपट्टिभूयं) ऐसा मालूम पडताया कि मानों गंध की वह वर्तीरूप ही है। यहां " यावत्" शब्द से काला गुरु आदि सुगंधित द्रव्य का संग्रह किया गया हैं। (पासाइयं, (कंव गमणिरयग धूमियागं) शुद्ध सुवर्ण, थेन्द्रांत सूर्य अन्त भणियो वगेरेथी અને કેતન વગેરે રત્ના દ્વારા તેને લઘુશિખર—ઉપરી ભાગ બનેલેા હતો. (णाणाविह पंचवन्न घंटा . प डागपरिमंडियग्गसिरं ) शिमरनी उपरन। लाग मने घंटडी भोवाणी चताप्रयोथी सुशोभित वामां आव्यो हुतो, (धवल मरीइकत्रयं विणिम्मु ચૈત)ખડી અને માટીના ઉપલેપથી તેમજ પ્રતિસ્થળમાં સંલગ્ન સ્ફટિકરત્નની કાંતિ સમૂહ ३ची वयने ते थामेर ईसावी रह्यो हुतो. (लाडल्लोय महियं) अने रंगना पुण्योनी સુવાસ યુકત અનેક લતાઓ દ્વારા આ મહેલના ઉપરના ભાગ ઢંકાએલા હતા. એથી ते अत्यन्त रमणीय लागतो तो. (जाव गंधवट्टिभूयं) ते भडेस गंधनी सलाअ (અગરબત્તી) ની જેમ જ લાગતા હતા. અહીં' ‘યાવત્' શબ્દ દ્વારા કાલાગુરુ વગેરે सुगंधि द्रव्यनो संग्रह अश्वामां आव्यो छे. (पासाइयं, दरिसणिज्जं, अभिरूव For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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