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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८२ शाताधर्मकथाजसत्र सहस्समालणीयं' अविः महसनालणीयं-अर्चिषां-विविधरत्नानां सहस्त्रैः मालणीयं-'मालणीय' इति देशीयशब्दः शोभितामत्यर्थः, 'रूवगसहस्सकलियं' रूपक सहस्रकलितं नानाविधचित्ताकर्षक प्रशस्तरूपसहस्रयुक्तम् 'भिसमाणं'भास. मान-रत्नकान्त्या 'भिब्भिममाण विभायमान-उत्कृष्ट नानावणेपरमरत्नज्योतिषा देदीप्यमानम्, चक्खुल्लोयगलेस्सं' चक्षुलाचनलेश्य चक्षुभ्यां लोकने अवलोकने सति लेश्यं दर्शनीयत्वातिशयतः श्लेष्यं यत् तत्तथा, यत् पश्यतच्चक्षुयं तत्र श्लिष्यतीच न कदाचिदपि विरमतीति भावः 'मुह कासं' सुखस्पर्श= अतिचिक्कणत्वात् कोमलस्पर्श, 'सम्सिरीयरूव' सश्रीकरूपं श्रिया सह वर्तन्ते इति सश्रीकाणि रूपाणि यत्र तत्सश्रीकरूपं-अतिशयशोभासम्पन्ननानाचित्रयुक्तम् इत्यर्थः 'कंचणमणिरयणथूभियागं' काञ्चनमणिरत्नस्तूपिकं-काञ्चनं शुद्धमुवणे, मणयः चन्द्रकान्तसूर्यकान्तादयः, रत्नानि कर्केतनादीनि तेषां निर्मितेत्यर्थः ते दीखता था। (अचिसहस्समालणीय) अनेक प्रकार के रत्नों की हजारो किरणों से यह शोभित था। (रूवगसहस्सकलियं) चित्ताकर्षक सुन्दर अनेक विध रूप सहस्त्र से यह युक्त था (मिसमाणं) रत्नों की कांति से प्रकाशित और (भिभिसमाणं) नाना वर्ण वाले परमोत्कृष्ट रहनों की चमक से देदीप्यमान ऐसे इस महल को देखने वाले दर्शक जनों के लोचन उसे देखते२ अघातेनही। क्यों कि उसे देखते ही वे ऐसे बन जाते थे कि मानों उसमें चिपक से गये हैं यही बात मूत्रकारने (चक्खुल्लोयणलेस्स) पद द्वारा प्रदर्शित की है। (मुहफासं) इस का स्पर्श सुखकारी (सस्सिरीयस्व) और मनोहर था। रूप शब्द का अर्थचित्र भी होता है। इसमें जितने भी चित्र बने थे वे अतिशय शोभा संपन्न थे यह अर्थ भी मश्रीकरूप पद का हो सकता है। (कंचणमणिरयणथूमियागं) शुद्धसुवर्ण (at) वो तो (अच्चिसहस्तमालणीय) मने ॥२॥ २त्नाना ॥२॥ रि। द्वारा मा महेस शोमतो तो (रूवगसहस्स कलिय) यित्ता४५४४२ मने विविध३५ सवथा ते संपन्न तो. (भिसमा) रत्नानी xiति द्वारा प्राशत मने भिभिसमाणं) भने २५ उत्तम २त्नानी प्रमाथी 30nsonal ते मरने नेता જોતાં જેનારાઓની આંખે તૃપ્ત થતી ન હતી. કેમકે તેને જોતાની સાથે જ તેઓ नणे यांटी या डायमेम सागता तामे पात सूत्रा२ (चकावल्लोयलेस्स) मा ५६ द्वारा प्रशित ४२री छ. (सुहफास) या स्पर्श सुभ६, (सस्सिरियस्त्र) भने ३५ તે મને હર હતે. રૂ૫ શબ્દનો અર્થ ચિત્ર પણ થાય છે. આમાં જેટલાં ચિત્રો હતાં તે બધાં અત્યન્ત શેભા સંપન્ન હતાં આ અર્થ પણ “સશ્રીક' પદને થઈ શકે છે. For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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