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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भनगार धर्मामृतवर्षिणीटीका अ.? मू. २० मेघकुमारजन्मनिरूपणम् २४3 तासां दागीयमपनीतवान् इत्यर्थः, तथा 'पुत्ताणुषुत्तियं वित्तिं कप्पेइ' पुत्रानुपुत्रिकां वृत्ति कल्पयति-पुत्रपौत्रभोगयोग्यां जीविकां ददातीत्यर्थः, कल्पयित्वा कृत्वा 'पडि 'विसज्जाइ' प्रतिविमर्जयति। ततः खलु स श्रेणिको राजा कौटु म्पिक-पुरुषान् शब्दयति= आहृयति, शब्दयित्वा आहूय एवमवदत्-वक्ष्यमाणरीत्या पुत्रजन्मोत्सवार्थ कथितवान्-भो देवानुप्रियाः। राजगृहं नगरम् 'आसिय जाव परिगीय' आसिक्त यावत् परिगीतम् इह यावच्छब्देन 'आसिय संमजि. ओवलिनं' इत्यादि, द्रष्टव्यम्, आसिक्तसंमार्जितोपलिप्तम्-आसिक्तं जलसेधमेन, समानित-कचरापन्यनेन, उपलिप-गोमयादिना, इत्यादि तथा (सक्करिता सम्माणित्ता मत्थयधोयाओ करेइ) सत्कार सन्मान कर के फिर उसने उन्हें मस्तकधौत किया-अर्थातदासीपने के कृत्य से मुक्त कर दिया और (पुत्ताणुपुत्तियं वित्ति कप्पेइ) पुत्र पौत्र भौग्ययोग्य आजीविका से युक्त कर दिया । अर्थात् उन्हें इस तरह की जीविको लगादी कि जिससे उनके पुत्र पौत्र तक भी बैठे२ खा सके। (कप्पित्ता पडिविसजेइ) इस तरह की उनकी व्यवस्था करके फिर राजाने उन्हें वहां से विसर्जित कर दिया। (तएणं से सेणिए राया कौडुबियपुरिसे सदावेइ) पश्चात् उन श्रेणिक राजाने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया (सदायित्ता एवं वयासी) और बुला. कर उनसे ऐसा कहा-(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ? रायगिहं नयरं आसिय जाव परिणीयं करेह) हे देवानुप्रियो ? तुम लोग शीघ्र से शोघ्र राजगृह नगर को असिक्त, संमानित तथा उपलिप्त करो-अर्थात् जल सींचकर उसे आसिक्त करो कूडा करकट हटाकर उसे संमार्जित करो और गोम्य તે અંગપરિચારિકાઓને “મસ્તક ધીત કરી એટલે કે દાસીપણાના કામથી મુકત કરી અને (युत्ताणु पुत्तियं वितिं कप्पेइ) पुत्र भने पौत्र माय मावि मनावी सीधी. એટલે કે તેમને એવી આજીવિકા કરી આપી કે તેથી તેમના પુત્ર અને પત્ર સુદ્ધાં मान पूर्व मेi mi न ५सा२ ४२श. (कप्पित्ता पडिसिज्जेइ) ALordनी व्य१२था ४ीने २० तेभने विहाय पायी. (तएणं से सेणिए राया कौडुबियपुरिसे सदावेइ) त्या२५॥४ श्रेणुि २०-ये टुमि पुरुषाने मोसाव्या. (सदावित्ता एवं क्यासी) मने मोडावीन यु (खिप्पामेव भो देवाणु प्पिया ? रायगिह नयरं आसिय जाव परिगीयं करेह) 3 हेवानुप्रिया ? तमे જલદી રાજગૃહનગરને આસિકત સંમાર્જિત તેમજ ઉપલિપ્ત કરે એટલે કે પાણી છાંટીને તેને સિંચિત કરે, કચરો સાફ કરીને તેને સમાજિત કરે અને છાણ વગેરેથી For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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