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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ.१ २० मेघकुमारजन्मनिरूपणम् २४१ ताः तथाभूतां देवीं दृष्ट्वा सिग्छ' शीघ्र 'पुत्रजन्मवृत्तं टिति निवेदितव्य' मित्यभिप्रायात् 'तुरियं त्वरितं, अत्र विलम्बो न कर्त्तव्यः' इति निश्चयात्, 'चवलं चवलं 'भूपं प्रतिद्रुततरं निवेदयिष्यामः' इति चिन्तनात् 'वेगिर्य' वेगितं अतिशीघ्रं प्रियं वृत्तं निवेद्य भूपं तोपयिष्यामः' इतिहेतोःकायव्यापार सद्भावात्, यत्रैव श्रेणिको राजा तत्रैवोपागच्छंति, उपागस्य श्रेणिकं राजानं जयेन विजयेन वर्द्धयन्ति, वर्द्धयित्वा 'करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिकट्ट करतलपरिगृहीतंबद्ध करतलद्वयं शिर आवर्त-शिरसि-ललाटप्रदेशे आवर्तनंराजा से कहना चाहिये इस विचार (ख्याल) से जल्दी जहां श्रेणिक राजा थे वहां पहुंची। सूत्रकारने जो यहां त्वरित आदि शब्दों को क्रिया विशेपण परक रक्खा है उनका अभिप्राय ऐसा है कि उन अंगपरिचारिकाओंने ऐसा विचार किया-इस समाचार के पहुँचाने में जरा भी विलम्ब नहीं करना चाहिये इसलिये उनकी चालमें त्वरा आ गई थीं। चलते समय उनकी गति बहुत अधिक द्रुततर बन गई थी कारण राजाको इस वृत्तान्त की खबर हम बहुत जल्दी करे ऐसा निश्चय उनके हृदय में काम कर रहा था। अतिशीध्रयह प्रिय बात राजा से कहकर उन्हें हम संतुष्ट करें इस अभिप्राय से उनका शरीर विशेष चंचलनारूप वेग से युक्त हो रहा था। (उवागच्छित्ता सेणियं राय जएणं वद्धावति) ज्यों ही वे राजा के पास पहुंची तो उन्होंने सब से पहिले उन्हें जय विजय शब्दों से बधाया (वद्धावित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी) वधाने के बाद दोनों . हाथों को अंजलिरूप म જન્મના સમાચાર રાજાની પાસે પહોંચાડવા જોઈએ આમ વિચારીને તેઓ જલદી શ્રેણિક રાજાની પાસે ગઈ. સૂત્રકારે અહીં જે “ત્વરિત વગેરે શબ્દને ક્રિયાવિશેષણના રૂપમાં પ્રયુક્ત કર્યા છે તેને ભાવ એ છે કે તે અંગપરિચારિકાઓએ વિચાર્યું કે આ સમાચાર રાજાની પાસે અવિલમ્બ પહોંચાડવા જોઈએ, એથી જ તેમની ચાલ માં ત્વરા” (ઝડ૫) આવી ગઈ હતી. ચાલતી વખતે તેમની ગતિ ખૂબજ દ્વતતર’ થઈ ગઈ હતી, કેમકે તેમના મનમાં નિશ્ચિતપણે આ વિચારે ઉદ્દભવ્યા કે આ સમાચારની જાણ રાજાને જલદી કરીએ તે સારૂં. અતિશીધ્ર આ પ્રિય સમાચાર રાજાને આપી તેમને સંતુષ્ટ કરીએ આ હેતુથી તે બધી અંગપરિચારિકાઓનું १२ विशेष ययगत॥३५ वेगथी युत थ६ २ तु. (उवागच्छित्ता सेणियं रायं जएणं विजएणं चद्भावेंति) शनी सामे पायतानी सा21 सौथी पहा ते मा पल्यिाशिन्याय 'न्य' विन्य' । शहाथी तभने धाव्या. (बद्धा. वित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत् मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी) qयाव्या ૩૧ For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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