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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका. सू.११ स्वप्नविपयदप्रश्नोत्तरनिरूपणम् १४३ माज्ञाप्तिकांमदीयाऽऽज्ञां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयत । ततस्ते खलु कौटुम्बिक पुरुषाः श्रणिकेन राज्ञा एवम् उक्ताः सन्तः हृष्ट यावत् हृदयाः करतलपरिगृहीतं दश नखं शिरमावर्त मस्तकेऽजलिं कृत्वा हे देव ! 'तहनि' तथेति एवमेव करिज्यामः इति 'आणाए' आज्ञायाः भूपाज्ञायाःवचनं विनयेन प्रतिश्रणयन्तिपी. कुर्वन्तीत्यर्थः। प्रतिश्रुत्य श्रेणिकस्य राज्ञः अन्तिकात् पतिनिष्कामन्ति प्रतिनिक्रम्य राजगृहस्य नगरस्य मध्यमध्येन यत्रै स्वप्नपाठकगृहास्तत्रैवोपागच्छन्ति पीछे शीध्र दो। (तएणं ते कोडवियपुरिसा सेणियएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट जाव हियया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत् मत्थए अंजलिं कह) इस प्रकार उनकौटुम्बिक पुरुषोंने श्रेणिक राना क आज्ञा प्राप्त कर अधिक प्रानन्द माना। आनन्द से युक्त हृदय होकर उन्होंने राजा को दशनख संपन्न अंजिल मस्तक पर घुमाकर शिर पर रखोअर्थात्-उसी समय उन्हें करबद्ध होकर मस्तक झुकाकर नमस्कार किया -और कहा (एवं देवो तहनि आणोए वि एणं वयणं पडिसुणेइ ! जैसी आपकी आज्ञा है हम वैसा ही काम करेंगे इस तरह उन्होंने राजा का आज्ञाका बडी विनय के साथ स्वीकार किया। 'हतुट्ट जाव हियाया' में जो यह 'यावत्' पद पड़ा है वह ७ सात वें मूत्र में कहे गये 'चित्तमाणंदिया पोईमणा, परमप्तोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाण' इन पदों का संग्राहक है। (पडिसुणेत्ता सेणियम्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमंति) आज्ञा स्वीकार करके फिर वे श्रेणिक राजाके पास से चले आए (पडिणिक्वमित्ता रायगिहस्स नयरस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव सुमिणपाठगिहाणि तेणेव उवागच्छति) आकर (तएणं ते कोडुबियपुरिसा सेणियएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव हि यया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिकटु मा प्रमाणे કેણિક રાજાની આજ્ઞા મેળવેલા તે કુટુંબના પુરુષે ખૂબ પ્રસન્ન થયા. હૃદયથી પ્રસન્ન થયેલા તેઓએ રાજાને દશનખ યુક્ત અંજલિને મસ્તક ઉપર ફેરવીને શિર ઉપર મૂકી, એટલે કે તે જ समये ४२५ थाने शि२ नभावीन तेथेये प्रामा , मने धु-(एवं देवो त. हति आणाए विण एण वयण पडिसणेइ) महारा०८ ! ठेवी आपनी मासा, અમે તે જ પ્રમાણે કરીશું. આ રીતે તેઓએ રાજાની આજ્ઞા બહુ જ વિનયની સાથે स्वीरी, "हट तट्ट जाव हियया" भरे २ यावत्' ५४ छ, ते सातभा सूत्रमा ४सा 'चिनमाणंदिया पीडमणा, परमसोमणस्सि या हरिसवसविसापमाण' Pा पहोनु साई छ. (पडिसुणेचा सेणियस्स रन्नो अंतियाओ पडि निक्खमंति) माशा स्वीशन श्रेणुि २ पासेथी ता २वा. (पडिणिकवमित्ता रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं जेणेव सुमिणपाढकगिहाणि तणेत्र उवागच्छ त) For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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