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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका सु ८ स्वप्नफलनिरूपणम् वग्रहेण जानाति, अवगृह्य =अर्थावग्रहता निर्णीय 'ई' ईहां=सदर्थपर्यालोचनाभिमुखां गतिचेष्टाम् 'अणुपविस' अनुपविशति = अन्तोऽवतरति स्वान्तः- करणं विचारसरणी प्रवेशयतीत्यर्थः, अनुप्रविश्य 'अप्पणो' आत्मनः = स्वस्य 'साभाविएणं' स्वाभाविकेन=स्वाभावसिद्धेन 'मपुत्र' मतिपूर्वकेण-क्ष्मधर्मालोचनरूपी मानसो व्यापारः, तत्पूर्वकेण - मक्ष्मार्थपर्यालोचनपूर्वकेण बुद्धिविणाojoj1 बुद्धिविज्ञानेन = गृहीतार्थपरिच्छेद पूर्वक विशिष्टक्षयोपशमजनितोपयोगवि शेषेण तस्य स्वस्य 'अत्थोग्गहं' अर्थात्रग्रह = स्वमार्थनिर्णयं करोति, कृत्वा धारिणीदेवीं ताभिः = वक्ष्यमाणरूपाभिः 'जाव' यात्रत्, 'इष्टाभिः' इत्यारभ्य यावत् हृदय महलादनीयाभिः = हृदयानन्दजननयोग्याभिः 'मिउमहररिभियगंभीरस सिरियाहि' मृदुमधुररिभित गम्भीरसश्रीकाभिः - मृदुमधुराभिः = सुकोमलवर्णपदग For Private and Personal Use Only १०३ ग) उस स्वप्न का अवग्रह ज्ञानद्वारा सामान्यरूप से विचार किया (ओगिता ) फिर सामान्य विचाररूप अर्थ अवग्रहज्ञान - ज्ञान करने के बाद (ई पविसइ) वे सदर्थ के पर्यालोचन के अभिमुख हुए ईहा ज्ञान में प्रविष्ट हुए अर्थात् उस महास्वप्न का चिन्तवन फिर उन्होंने ईहाज्ञान से किया ( पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइ पुव्वएर्णबुद्धिविष्णाणे णं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहं करेइ) ईहा ज्ञान से जब वे उस महास्वप्न का विचार कर चुके तब फिर अपने स्वाभाविक गतिपूर्वक बुद्धि विज्ञानद्वारा उस महा स्वप्न के अर्थ का उन्होंने निर्णय किया। सूक्ष्म धर्म के आलोचनरूप जो मानसिक व्यापार होता है उसका नाम मति है । तथा गृहीत अर्थ के परिच्छेद पूर्वक जो विशिष्ट क्षयोपशम होता है और उस क्षयोपशम से जो उपयोग विशेष होता है उसका नाम बुद्धि विज्ञान है । (करिता) इस विचार करके ( धारिणीं देवी ताहि जाव हियय पल्हायणिज्जाहिं मित्रमहुरविद्यार्थी. (ओगिन्हित्ता) सामान्य विद्यारथी अर्थावग्रहज्ञान भेजव्या पछी (ईहं पत्रिसह) ते सहा पर्यायायन तर अलिभुण थता डिज्ञानभां प्रविष्ट थया, अर्थात् ते भड्डा स्वभनु थिंतन तेगो घडा ज्ञानवडे यु. (पत्रिसित्ता अप्पणी साभाविएणं मपुष्वणं बुद्धिविष्णाणे णं तस्स सुमिणस्स प्रत्थोग्गहं करेइ) डीज्ञानવડે જ્યારે તેઓએ તે મહાસ્વમ વિષે વિચાર કરી લીધા ત્યારે ફરી પોતાની સહજ મતિપૂર્વક બુદ્ધિ વિજ્ઞાનવડે તે મહાસ્વપ્નના અનેા નિર્ણય કર્યો. સૂક્ષ્મ ધર્માંની આલાચનારૂપે જે માનસિક વ્યાપાર હોય છે, તે મતિ છે. તેમજ ગ્રહણ કરાયેલા અર્થના પરિચ્છેદપૂર્વક જે વિશિષ્ટ ક્ષયાપશમ થાય છે, અને તે ક્ષયાપશમવડે જે उपयोग विशेष होय छे ते बुद्धिविज्ञान छे. (करिता) भारीते वियारीने (धारिणीं देवीं ताहि जाव हिययपहायणिजाहिं मिउमहुररिभिय गंभीरसस्सिरीयाहिं
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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