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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० ज्ञाताधर्मकथास परिगुहोतं संपुटीकृत्तं सिरसावत्तं' शिरआवत-शिरास आवर्ती यस्य स शिर आवर्तः, तं तादृशम् अञ्जलिं-मुकुलितकरतलपुटं 'मत्थए कटु' मस्तकं कृत्वा श्रेणिक राजानमेवमवादीत वक्ष्यमाणप्रकारेणाचीकथत-हे देवानमियाः ! एवं खलु अहम् 'अज्ज' अद्य तस्मिन तादृशे-तथाप्रकारे शयनीये 'सालिंगणवटिए सालिङ्गवर्तिके शरीरप्रमाणोपधानसहिते, इत्यादि पूर्वमूत्रवर्णितविशेषणविशिष्टे 'जाव' यावत् "णियगवयणमइवयंत' निजकवदनमतिपतन्तं गगनतलादवतरन्तं मम मुखे प्रकिशन्तं गज स्वप्नेदृष्ट्रा प्रतिबुद्धा जागरिताऽस्मि तत् तम्मात्कारणात एतस्य खलु उदारस्य यावत-महास्वमस्य कः 'किंमकारकः 'कल्लाणे' कल्याण: शुभपरिणाम करके (सिरसावत्तं) पश्चात उन्हे मस्तक पर घुमाते हुए (अंजलिं मत्थए कटु) अपनी उस अंजलि को अपने माथे पर रखकर (सेणियं रायं एवं क्यासी) श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहा-(एवं खलु अहं देवाणुप्पिया !) हे देवानुप्रिय ! में आपके समीप इसलिये आई हूँ-सुनिये-(अज तंसि ता. रिसर्गास सणिज्जंसि सालिंगणवट्टिए जाव नियगवयणमइक्कं गयं सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा) आज मैं उस पूर्योपार्जित परम पुण्य के प्रकर्ष से प्राणियों को प्राप्त होने योग्य शय्यापर कि जो शरीर की लंबाई प्रमाण लंबे तकिये से युक्त आदि पूर्वमत्रवर्णित विशेषणों वाली थी उसपर सोई हुई थीं। उस समय में न अधिक निद्रा में थी और न जाग्रत अवस्था में हो । ऐसी स्थिति में मैने रात्रि के पिछले प्रहर में गगनतल से उतरते हुए गज को अपने मुख में प्रवेश करते हुए स्वप्न में देखा है। स्वप्न देखने के अनन्तर ही मैं बिलकुल जग गई । (तं एयस्स णं देवाणुप्पिया ! उरालस्स संपुट।४।२ मतावान (प्सिरसावतं) पछी भने भरत ७५२ ३२५तi (अंजलि मत्थए कह) पातानी मसिने पोताना भाथा ५२ राजाने (सेणियं रायं एवं वयामो) श्री ने 20 प्रमाणे उधु-(एवं खलु अ देवाणुप्पिया ! हेपानुप्रिय ! Air ई भारी पासे मेटद॥ भाट मावी छु-(अजहंसित्तारिसगसि सयाणिज्जंसिसालिंगणवटिए जाव नियगवयणमइवयंतं गयं मुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा) આજે હું તે શય્યા ઉપર સૂતી હતી કે–જે પૂર્વકાળમાં અત્યન્ત પુણ્ય પ્રકર્ષવડેજ માણસને પ્રાપ્ત થાય છે, અને જે શરીરની લંબાઈના જેટલા લાંબા ઓશીકાવાળી છે વગેરે આ સૂત્રના પૂર્વ સૂત્રમાં વર્ણવેલાં બધાં વિશેષણોથી યુકત હતી હું તે વખતે નિદ્રામાં ન હતી તેમજ જાગ્રત અવસ્થામાં પણ નહતી. એવી સ્થિતિમાં રાત્રિના પાછલા પહોરમાં આકાશમાંથી નીચે ઉતરતા હાથીને સ્વપમાં મેં મારા મમાં પ્રવેશતા જોયે છે. २१ नया पछी तरत भी 5. (तं एयस्स णं देवाणुप्पिया! उरालस्स जाव For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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