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गीautवरागप्रबन्धः
* विशररुचिघृतसांध्य कान्तिसरणे इह कष्टनशन यौवनसुभरणे । दुरनुरागं मा कलय देहिन् || २ | विकसवनकुसुमसमनाशशीले इह कष्टविकलितशुभातिलोले ॥ दुरनुरागं मा कलय देहिन् ॥ ३ ॥
तनयपरिजननिचयबन्धमूले इह कष्टघनदुरितघोरजाले । द्रग्नुरागं मा कलय देहिन् || ४ ||
मरणवनचरनिकर भीमगहने इह कष्टजरणवनदावदहने । दुरनुरागं मा कलय देहिन् ॥ ५ ॥
स्वरचितसुरकृत बहुदुःखभरिते इह कष्टनरकगतिविपुलदुरिते । दुरनुरागं मा कलय देहिन् ॥ ६ ॥
चर्मकुलभरितपृथुपूतिसदने इह कष्टधर्महतधूर्त मदने । दुरनुरागं मा कलय देद्दिन् || ७ || स्त्रीतनुजम लिनसुखमिलितवासे इह कष्टजात निज कुशलनाशे । दुरनुरागं मा कलय देहिन् ।। ८ ।।
४) विशर = नाशशील ।
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