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८२.
प्रकार भव से भव भव से भव, भव... इस तरह चलता ही रहेगा, और मोक्ष कभी नहीं होगा । क्योंकि आप को तो भव के प्रति पूर्व भव हो कारण है ।
(६) प्र० - मिट्टी में से स्व स्वभाव से अनुरूप कार्य घड़ा होता है, इसी प्रकार इस भव में से स्व स्वभाव से अनुरूप समान भवांतर होना चाहिये ।
उ०- -घड़ा भी कर्ता, कररण श्रादि की अपेक्षा रखता है, इस प्रकार यहां भावांतर भी जीव कर्म श्रादि की अपेक्षा रखता है । 'बिना कर्म के स्वभाव से होता हो,' तो भवांतरीय शरीर यह मेघ आदि की भांति अनिश्चित प्राकारवाला होगा, निश्चित प्राकारवाला कैसे ?
(७) 'यह भव वैसे स्वभाव से ही समान भवांतर करता है' ऐसा अगर कहो, तो यह बताइये 'स्वभाव' क्या वस्तु है ? क्या वस्तु का स्वभाव यह ( १ ) वस्तु रूप है ? अथवा (२) निष्कारणता रूप है ? या (३) वस्तुधर्म रूप वह होता है ? प्रस्तुत में (१) 'वस्तु' रूप में यह भव लो, तो भवांतर के पहले ही वह तो नष्ट हो चुका, फिर भवांतर में स्वभाव रूप से वह कारण कैसे ? वस्तु-रूप में यदि कारण पकड़ो तो वह अपने प्रति कारण कैसे हो सकता है । (२) निष्कागता कहते हो तो उसमें तो यह श्राया, कि 'भवांतर निष्कारणता से इस भव के समान होता है' । यों जब निष्कारणता ही भवांतर में प्रयोजक है, तब तो ये प्रश्न होते हैं कि ( i ) भवांतर सदृश ही हों, श्रसदृश नहीं, यह कैसे ? (ii) भवोच्छेद क्यों नहीं ? (iii) निश्चित आकार क्यों (iv) एवं भव नित्य सत् हो या नित्य श्रसत् हो, पर कदाचित् सत् क्यों ? ( ३ ) स्वभावरूप से बस्तु-धर्म कहते हो तो यह श्राया कि 'भव वस्तुधर्म से भवांतर समान करता है तब इस भव का ऐसा कौन सा धर्म है जो भवांतर में कारण भूत हो ? मूर्त श्रथवा अमूर्त ? अमूर्त नहीं कह सकते, क्योंकि ऐसे अमूर्त का कार्य मूर्त शरीर सुख-दुःखादि नहीं बन सकता । मूर्त धर्म कहते हो तो 'वह सदा समान ही हो, यह नियम क्यों, कि जिससे यह समान ही भवांतर करे ऐसा कह सकें ?
(८) वस्तु स्थिति यह है कि मात्र श्रात्मा का परभव ही क्या, त्रिभुवन में वस्तुमात्र कई पूर्व पर्याय से तदवस्थ रहती हैं तो कई पूर्व पर्याय छोड़कर
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