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है और वह कर्म मिथ्यात्व-अविरति आदि हेतुओं की विचित्रता से विचित्र विचित्र रूप में उत्पन्न होता है, तो उसमें से होने वाला भवांकुर भी गति, जाति, कुल, बल ऐश्वर्य, रूपादि विचित्र परिणाम वाला ही बने इसमें क्या प्राश्चर्य ? अनुमानतः-'जीव की सांसारिकता नारकादि के रूप में भिन्न भिन्न होती है। क्योंकि यह विचित्र कर्म का कार्य है, जैसे कृषि-व्यापारादि विचित्र कर्म से उत्पन्न 'लोक-विचित्रतो' । तात्पर्य भव प्राकस्मिक नहीं किन्तु पूर्व कर्म का फल है, अत: जैसा कर्म वैसा भव होगा; समान कर्म से समान भव, असमान कर्म से असमान ।
(३) कर्म परिणति विचित्र है क्योंकि यह पुद्गल-परिणति रूप है, समान दृष्टान्त मेघ आदि। विरुद्ध दृष्टान्त आकाश। कर्म में प्रावरणादि की भिन्न भिन्नता से विशेष विचित्रता होती है । हेतु विचित्रता को ले कर कार्य. विचित्रता हो, यही युक्तियुक्त है ।
(४) यहां के जैसा भवांतर ऐसा कहते हो, परन्तु भवांतर के लिए अकेला यह भव ही बीज नहीं है, परन्तु शुभाशुभ क्रिया सहित भव यह बीज है। मनुष्य विचित्र क्रियाएं करते हैं वे निष्फल न जाएं अतः उनके फल रूप में विचित्र भवांतर मानने ही पड़े।
(५) प्र०-खेती आदि क्रियाएं तो प्रत्यक्ष फल देती है, परन्तु हिसाज्ञानादि क्रियाएं तो मनोरुचि के अनुसार ही होने से निष्फल ही हैं । फिर असमान मवांतर कैसे ?
उ.-यदि हिंसा-ज्ञानादि क्रियाएं निष्फल हों तो (i) कृतनाश-प्रकृतआगम को आपत्ति, अर्थात् की गई क्रिया तो बिना फल यों ही नष्ट होने की मापत्ति; और आगे जो भला-बुरा फल मिलता है वह ऐसे ही अर्थात् पूर्व में अ-कृत यानी कुछ किए बिना प्राकस्मिक प्रागमन रूप होगा!
(ii) भवांतर ही न होगा ! क्योंकि जगत में भव का कारण कर्म है और इस क्रिया से कर्म होना तो तुम्हें मान्य नहीं । फिर भव ही नहीं तो समान भवांतर की भी बात कहां रही ? फिर भी हो तो कृत का आगमन हुमा । इस
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