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प्रश्न - हिंसादि क्रिया करने वाला श्रदृश्य फल अशुभ कर्म का इच्छुक तो नहीं होता. फिर भी उसे वह मिलता है, और दृश्य फल की इच्छा होने पर भी कई बार नहीं भी मिलता, ऐसा क्यों ?
उत्तर - यह बात कर्म का और अधिक प्रमाण है । कषाय और योग (क्रिया) से अदृश्य फल कर्म की उत्पत्ति होती है । श्रतः हिंसादि क्रिया में श्रदृश्य कर्म की उत्पत्ति तो अवश्य होती है, जब कि दृश्य फल तो पूर्वकृत तदनुकूल कर्मों का उदय होने पर ही प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं । इसीलिए तो समान सामग्री लेकर व्यापार करने पर कितने ही जनों को वांछित धन नहीं मिलता, श्रथवा धन-लाभ में अंतर पड़ता है । हृष्ट सामग्री समान होने पर भी सुख दुःखादि फल में भेद होता है, उस भेद का कारण अदृश्य कर्म का भेद ही मानना पड़ता है । 'अदृश्य कैसे काम करे ?' यह मत कहना, कार्य-घट के पीछे परमाणु काम करते ही हैं भले वे अदृश्य क्यों न हो ?
प्रश्न - ठीक हैं, तो भी ये अदृश्य तत्त्व कर्म यह अमूर्त आत्मा की वस्तु से अमूर्त गुण रूप ही सिद्ध होते है न ?
उत्तर - नहीं, ऐसा नियम नहीं कि आत्मा की वस्तु श्रमूर्त रूपी ही हो, शरीर श्रात्मा का ही होने पर भी अमूर्त कहां है ?
'कर्म मूर्त है' - यह इन पांच हेतुनों से सिद्ध होता है, -
(१) जो जो कार्यं मूर्तं होते हैं उनके कारण भी मूर्त होते हैं; जैसे घड़े के कारण परमाणुमूर्त हैं । कार्य अमूर्त हो वहां यह नियम नहीं । उदाहरगार्थ - ज्ञान यह प्रमूर्त कार्य है, परन्तु उसका कारण आत्मा मूर्त नहीं । बाकी कर्म का कार्य शरीरादि मूर्त होने से, ये काररणभूत कर्म मूर्त सिद्ध होते हैं ।
(२) जिसके सम्बन्ध से सुख होता है वह मूर्त होता है । जैसे- श्राहार के सम्बन्ध से सुख का अनुभव होता है, तो प्रहार मूर्त है । इसी प्रकार कर्म के सम्बन्ध से सुख होता है अतः कर्म मूर्त हैं ।
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