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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८ सफल समझ कर की जाती है और अन्य सामग्री पूरी हो तो फल निःसन्देह पाते ही हैं। तो दोनादि का फल क्या ? प्रश्न-मन की प्रसन्नता को फल कह सकते हैं न ? जैसे-सुपात्रदान से चित्त आह्लादित मालूम होता है। उत्तर- ठीक है, परन्तु यह भी एक क्रिया है तो इसका भी फल क्या ? प्रश्न-इसका फल अन्य दानादि क्रिया। उत्तर-परन्तु अन्तिम मन की प्रसन्नता जिसके पीछे दानादि क्रिया नहीं हुई उसका फल क्या ? तो कहेंगे कर्म । प्रश्न-फल तो जैसे हिंसा का दृश्य फल मांस-प्राप्ति, ऐसे ही दानादि का दृश्य फल प्रशसा, कीति आदि मान सकते हैं,-फिर अदृश्यफल मानने की क्या आवश्यकता है ? संसार में भी दिखाई देता है कि प्रायः जीव यहां प्रत्यक्ष फल मिले ऐसी क्रियाओं में प्रवर्तमान रहते हैं। आपने खेती का दृष्टांत दिया उसके आधार पर भी दानादि का दृश्य फल मानना चाहिये। दृश्य फल जहां हो वहां अदृश्य फल की कल्पना क्यों ? भोजन का दृश्य फल तृप्ति है, या कृषि का दृश्य फल फसल है, तो अदृश्य फल कहां मानने में आता है ? उत्तर--प्रत्येक क्रिया का दृश्य फल तो कदाचित् न भी हो, फिर भी अदृश्य फल तो होता ही है। अतः दृश्य फल के साथ अदृश्य फल का भी होना मानना चाहिए। हिंसादि क्रियाओं के मांस-प्राप्ति प्रादि दृश्य फल भले हों, फिर भी इनका अदृश्य फल पाप मानना ही चाहिए । अन्यथा इस संसार में जीव अनंत काल से क्यों भटकते रहते हैं ? हिंसादि अशुभ क्रिया करने वाले बहत हैं अतः दुःखी और संसार में भटकने वाले भी बहुत; इसके विपरीत दानादि शुभ किया करने वाले थोड़े ! और सुखी तथा मोक्ष प्राप्त करने वाले भी थोड़े ! इस पर शुभाशुभ क्रिया का सुख-दुःख के साथ मेल मिलता है कि शुभ क्रिया से सुख, व अशुभ क्रिया से दुःख, किन्तु यह बौच को कर्मरूपी सांकल से ही बन सकता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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