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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भी सूक्ष्म होते हैं स्थूल नहीं होते, इसी प्रकार परमाणु स्वरूप भी नहीं होते । ये जैसे तेल चुपड़े हुए शरीर पर रज चिपकती है, उस तरह राग द्वेष से चिकनी बनी हुई प्रात्मा पर मध्य के शुद्ध स्वच्छ पाठ रूचक-प्रदेश के अतिरिक्त सर्व आत्म-प्रदेश के साथ इसी के प्रवगाहित आकाश में रहे हुए कर्म-पुद्गल चिपकते हैं । प्रात्मा और कर्म दोनों की ऐसी परस्पर योग्यता है कि चिपकते हुए कर्म को प्राश्रयभूत आत्मा अपने शुभ या अशुभ परिणाम के अनुसार शुभ या अशुभ कर देती है। (साथ ही कर्म की प्रकृति-स्थिति-रस-प्रदेश भी निश्चित कर देती है।) पाश्रय भेद से कार्य-भेद होता है। उदाहरणार्थ वही पानी गाय में दूध के रूप में, और सर्प में विष के रूप में परिणत होता दिखाई देता है। अथवा एक ही प्रकार का भी प्राहार पाचन-शक्ति के अनुसार रस रुधिर आदि धातुओं और मलमूत्र कफादि में परिणत होता है। वैसे ही कर्म पुद्गलों को शुभ भाव शुभरूप में व अशुभ भाव स्वतन्त्र अशुभ रूप में बना देता है । शुभ पुण्यकर्म तत्त्वार्थ शास्त्र के अनुसार समकितमोहनीय-हास्य रतिपुवेद तथा शाता वेदनीय, शुभ प्रायुष्य-नाम-गोत्र की कुल ४६ कर्म प्रकृतियां हैं। शेष सभी पाप कर्म रूप हैं । कर्मग्रन्थमतानुसार समकितमोहनीय-हास्य-रति. युवेद ये चार पाप कर्मरूप हैं, क्यों कि ये जीव को विपर्यास करवाते हैं। इनमें समकित-मोह शंकादि अतिचार लगाता है और मूल में तो मिथ्यात्व कर्म के दलिक [पुद्गलस्कन्ध] हैं अतः प्रशुभकर्म रूप हैं । इस प्रकार समझाने से अचलभ्राता को सच्चा ज्ञान हुआ, और उन्होंने भी प्रभु के पास अपने ३०० के परिवार के साथ दीक्षा ली। For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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