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Acharya Shirikissagarsur Gyarmandie
साई
गणधर- &ावाची शब्द हैं और प्रस्तुतः ग्रन्थ में इन्हीं का स्तुत्यात्मक वर्णन १५० प्राकृत गाथाओं में किया गया है अतः नाम सुसंगत प्रतीत
होता है। इसकी वृत्तियों में नामनिर्देश साफ तौर से पाया जाता है। शतकम् ।। उद्देशः॥४॥
यह तो एक सर्वमान्य नियम है कि विश्व का कोई भी कार्य बिना किसी उद्देश से हो ही नहीं सकता। प्रश्न उपस्थित होता हैं कि प्रस्तुत ग्रन्थनिर्माण कार्य में रचयिता का कौनसा उद्देश्य था ! हमें तो विदित होता है कि पूर्वजों-गणधरों और अपने परमोपकारी आचार्य मुनिगण के स्तुतिरूप से स्मरण कर उनके प्रति अपना कृतज्ञताभाव प्रदर्शित करने और पूर्व महापुरुषों की अक्षय कीर्तिलता का तात्कालिक समाज का ज्ञान कराने उनको प्रमुदित करने के हेतु से ही प्रकृत ग्रन्थ निर्माण किया गया है। अतिरिक्त और कोई हेतु होने की संभावना नहीं प्रतीत होती है। भाषा:
उक्त ग्रन्थ की भाषा शुद्ध प्राकृत है। भाषा का सौंदर्य तथा प्रवाह अत्यन्त सुंदर बहाया गया है। भाषा वैविध्यता से विदित होता है कि, ग्रन्थाकार का इस पर विशेष प्रभुत्व था। माधुर्यता प्राकृतभाषा का प्रमुख गुण है, फिर समर्थ उपयोक्ता मिलने से स्वर्ण में सुगंधी आ गई। उपयोक्ता के गुरुजी भी प्राकृतभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि थे, यह लघु ग्रन्थ पर ४ टीकाएं आजतक उपलब्ध हुई हैं जो ग्रन्थ की उपयोगिता और महत्ता को प्रदर्शित करती हैं।
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